सरदार पटेल—एक नाम, जो भारत की एकता, दृढ़ता और संकल्प का प्रतीक बन गया। वह व्यक्ति, जिसने केवल राजनीतिक सीमाओं का नहीं, बल्कि भावनात्मक सीमाओं का भी पुनर्निर्माण किया। इतिहास में कई महापुरुष हुए जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया, परंतु सरदार वल्लभभाई पटेल वह शिल्पकार थे जिन्होंने इस आज़ाद भारत को एक सूत्र में पिरोया। आज उनके जन्मदिवस पर जब हम उन्हें याद करते हैं, तो यह केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उस अद्भुत दृष्टि का स्मरण है जिसने “भारत” नामक विविधताओं से भरे भूभाग को “राष्ट्र” में रूपांतरित किया।
1875 का वर्ष—नाडियाड के एक साधारण किसान परिवार में जन्मा एक बालक, जिसने आगे चलकर सम्पूर्ण भारत की किस्मत बदल दी। झावेरभाई पटेल के घर जन्मे वल्लभभाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। सीमित साधनों के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। शिक्षा पूरी कर उन्होंने वकालत में कदम रखा और अपनी प्रतिभा के बल पर शीघ्र ही नाम कमा लिया। परंतु उनके भीतर का स्वाभिमानी भारतीय उस दौर की अंग्रेज़ी हुकूमत की अन्यायपूर्ण व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं था।
लंदन से बैरिस्टरी की पढ़ाई पूरी कर जब वे भारत लौटे, तब उनकी ख्याति एक सफल वकील के रूप में फैल चुकी थी। किंतु यहीं से उनके जीवन ने वह मोड़ लिया जिसने उन्हें “सरदार” बना दिया। महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी सुविधाजनक जिंदगी छोड़ दी और किसानों के पक्ष में खड़े हो गए। खेड़ा सत्याग्रह, बोरसद सत्याग्रह और फिर 1928 का ऐतिहासिक बारदोली आंदोलन—ये तीनों मील के पत्थर थे जिन पर वल्लभभाई पटेल ने अपने नेतृत्व और संगठन कौशल की अमिट छाप छोड़ी। बारदोली के किसानों ने जब उन्हें “सरदार” कहा, तो यह केवल एक उपाधि नहीं, बल्कि जनविश्वास का सम्मान था।
आजादी की लड़ाई में उनका योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं था। वे गांधीजी के दृढ़ समर्थक थे और हर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। असहयोग आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन—पटेल ने देश के हर कोने में जाकर लोगों में जागरूकता की लौ प्रज्वलित की। उन्होंने स्वयं खादी को अपनाया, अंग्रेज़ी परिधान त्याग दिए और अपने आचरण से स्वदेशी की भावना को जीकर दिखाया। यही कारण था कि जनता उन्हें केवल नेता नहीं, बल्कि एक संरक्षक की दृष्टि से देखती थी।
1947 का वर्ष—आजादी के साथ-साथ सबसे बड़ी चुनौती भी लेकर आया। ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ, पर भारत केवल राजनीतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि भौगोलिक रूप से भी बिखरा हुआ था। 565 देशी रियासतें थीं, जिनमें से कई स्वतंत्र रहना चाहती थीं, कुछ पाकिस्तान में विलय चाहती थीं, और कुछ ने अस्पष्ट रुख अपना रखा था। यही वह क्षण था जब सरदार पटेल ने अपने लौह-संकल्प, कूटनीति और व्यावहारिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। भारत के पहले गृहमंत्री के रूप में उन्होंने देशी रियासतों के विलय का दायित्व अपने कंधों पर लिया—और इतिहास गवाह है कि उन्होंने इस दायित्व को न केवल निभाया, बल्कि असंभव को संभव कर दिखाया।
पटेल ने राजाओं और नवाबों से स्पष्ट कहा—“अब समय व्यक्तिगत साम्राज्यों का नहीं, राष्ट्र निर्माण का है।” जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल और कश्मीर—ये वे नाम हैं जिन्होंने भारत की एकता की परीक्षा ली। जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान से विलय की घोषणा की, किंतु सरदार पटेल ने जनता के विद्रोह और राजनीतिक कौशल के माध्यम से जूनागढ़ को भारत में मिला लिया। हैदराबाद के निज़ाम ने स्वतंत्र रहने का सपना देखा, पर “ऑपरेशन पोलो” ने उस भ्रम को तोड़ दिया। भोपाल और कश्मीर की रियासतों ने भी अंततः भारत का दामन थामा। यह सब बिना बड़े पैमाने के रक्तपात के संभव हुआ—क्योंकि पटेल के तर्क में कठोरता और उनकी नीयत में पारदर्शिता थी।
उनकी कूटनीति में एक विशेषता थी—वे भय नहीं, विश्वास जगाते थे। वे राजाओं से कहते थे, “अलग रहकर आप असुरक्षित रहेंगे, भारत के साथ रहकर आप अमर होंगे।” और सचमुच, उनकी वाणी ने चमत्कार किया। जिन रियासतों में विद्रोह की संभावना थी, वहां भी वे जनता के माध्यम से एकता का भाव जगाने में सफल हुए। उनका संगठन कौशल, त्वरित निर्णय क्षमता और धैर्य उन्हें “भारत का बिस्मार्क” बनाता है।
परंतु यह सब केवल राजनीतिक कौशल नहीं था। सरदार पटेल का व्यक्तित्व दृढ़ता और संवेदना का संगम था। वे जानते थे कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, सामाजिक भी होनी चाहिए। उन्होंने अस्पृश्यता, नशे और स्त्री उत्पीड़न के खिलाफ भी आवाज़ उठाई। वे मानते थे कि देश तभी मजबूत होगा जब उसका समाज समरस और शिक्षित होगा। उनके नेतृत्व में अहमदाबाद में अनेक सामाजिक संस्थाएं और आश्रम स्थापित हुए।
गांधीजी की हत्या ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। दो वर्ष बाद 1950 में उनका देहावसान हुआ—पर भारत की आत्मा में वे आज भी जीवित हैं। उन्होंने केवल नक्शे का नहीं, राष्ट्र की आत्मा का निर्माण किया। यदि आज भारत हिमालय से कन्याकुमारी तक एक सूत्र में बंधा हुआ है, तो उसके मूल में सरदार पटेल की दूरदृष्टि और दृढ़ निश्चय है।
1991 में भारत रत्न से सम्मानित सरदार पटेल वास्तव में उस “लौह पुरुष” के प्रतीक हैं, जिन्होंने भारत को खंडित होने से बचाया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व भाषणों से नहीं, निर्णयों से बनता है; और राष्ट्र की एकता केवल सीमाओं से नहीं, विश्वास और सामूहिक चेतना से कायम रहती है।
आज जब हम सरदार पटेल की जयंती मनाते हैं, तो यह केवल श्रद्धा का अवसर नहीं, आत्मावलोकन का भी क्षण है। क्या हम उतने ही दृढ़, स्पष्ट और राष्ट्रनिष्ठ हैं जितने पटेल थे? क्या हम अपने भीतर उस लौह-संकल्प को जागृत कर पाए हैं जिसने 565 टुकड़ों को एक कर दिया था?
सरदार पटेल ने कहा था—“इस मिट्टी में कुछ ऐसा है कि जब हम झुकते हैं, तो भी खड़े नजर आते हैं।”
वास्तव में, भारत आज भी उनकी उसी मिट्टी पर खड़ा है—अडिग, अटल और अखंड।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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