देवव्रत महेश रेखे—सुनने में यह नाम आज भले ही ट्विटर-ट्रोलर्स के लिए एक मीम का विषय हो, पर सच यह है कि इस एक युवक ने वैदिक परंपरा की उस जड़ तक झकझोर दिया है जिसे आज तक अधिकतर लोग सिर्फ “कहानी” समझते थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिस श्रुति परंपरा की चर्चा होती रही, जिस मौखिक विद्यावाहक संस्कृति का बखान लोग करते थे—उसका मूर्त, निर्विवाद, अद्भुत प्रमाण अचानक से 19 वर्ष का एक बालक खड़ा करता है, और खड़ा भी कैसे? बिना ग्रंथ देखे, स्मृति मात्र से शुक्ल यजुर्वेद के 2000 मंत्रों का दंडक्रम पारायण, वह भी 50 दिनों में।
और फिर वही पुराना दृश्य—ज्ञान का उदय हुआ नहीं कि अज्ञान का शोर शुरू। कुछ बुद्धिकुलीन समूहों ने तुरंत पूछना शुरू कर दिया—“इससे देश को क्या फायदा?” यह वही प्रश्न है जो किसी कोहली के शतक पर भी पूछा जा सकता है, किसी सर्जन की कठिनतम सर्जरी पर भी, किसी वैज्ञानिक के जटिल सिद्धांत पर भी—लेकिन कभी पूछा नहीं जाता। इंसान की दुर्लभ क्षमताओं को दुनिया हमेशा सेलिब्रेट करती आई है; लेकिन यहाँ, क्योंकि यह क्षमता भारतीय वैदिक परंपरा से निकलकर आई है, तो अचानक उसकी उपयोगिता पर सवाल उठने लगे।
देवव्रत जी ने जो किया, वह महज एक धार्मिक उपलब्धि नहीं—यह कॉग्निटिव साइंस, न्यूरोलिंग्विस्टिक्स, वोकल फिज़ियोलॉजी और मेमोरी-स्टडी के लिए एक विशाल नेचुरल एक्सपेरिमेंट है।
लेकिन इससे पहले कि इस कौतुक का मूल्यांकन करें, यह समझना आवश्यक है कि यह परंपरा पैदा कैसे हुई।
वेद लिखे नहीं जाते थे—सहे जाते थे। हजारों मंत्र, उनके स्वर, उच्चारण, संधि-विच्छेद, देवता, ऋषि—यह सब किसी स्लेट पर नहीं, किसी तालपत्र पर नहीं, बल्कि मनुष्य के मस्तिष्क पर लिखे जाते थे। और मस्तिष्क, चाहे जितना विलक्षण हो, गलती करने वाला उपकरण है। एक अक्षर छूटे, एक नया अक्षर जुड़ जाए, स्वर की ऊँच-नीच बदल जाए—बस वेद की शुद्धता खतरे में।
इसलिए भारतीयों ने एक अनूठी पद्धति विकसित की—पाठ परंपरा—जो दुनिया की किसी भी सभ्यता में इस परिमाण में मौजूद नहीं। संहिता पाठ, पद पाठ, क्रम पाठ—ये तो आधार हैं। असली चमत्कार तो विकृति पाठों में है—जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दंड, रथ और घन पाठ।
इन पाठों में मंत्रों को सीधा, उल्टा, आगे, पीछे, जोड़कर, घुमाकर, पुनः जोड़कर इस अफाट जटिलता से पढ़ा जाता है कि मनुष्य का मस्तिष्क उसे भूलना लगभग असंभव हो जाता है। यह सिर्फ याद करना नहीं—यह स्मृति को संरक्षित करना है, स्वर की शुद्धता को सुरक्षित रखना है, त्रुटि की हर संभावना को मिटा देना है।
यही कारण है कि 3000 वर्षों बाद भी वेद जैसे के तैसे उपलब्ध हैं। ग्रीस का साहित्य, मिस्र की भाषा, मेसोपोटामिया के ग्रंथ—सब विकृत हो चुके, अनुवादों में टूट चुके, स्वर खो चुके। परंतु भारतीय वेद—जैसे थे, वैसे ही आज भी।
और इस पूरी प्रणाली में सबसे कठिन—दंडक्रम। हर नया पद जुड़ता है, पाठ सीधा चलता है, फिर उल्टा लौटता है, फिर सीधा बढ़ता है—एक मंत्र हजार पहेलियों की तरह स्मृति में पैठता जाता है। 2000 मंत्रों के दंडक्रम को मात्र 50 दिनों में स्मृति से दोहराना, वह भी 12–12 घंटे लगातार स्वर, स्वर, स्वर की पुनरावृत्ति करते हुए—यह मानवीय क्षमता का वह शिखर है जिसे देखकर दुनिया में किसी भी वैज्ञानिक का मन आश्चर्य से भर जाए।
यह सिर्फ परंपरा नहीं—यह वैज्ञानिक अध्ययन का स्वर्ण अवसर है।
हिपोकैंपस में इतनी जटिल सूचनाएँ कैसे स्थिर होती हैं?
रिट्रीवल पाथवे इतने सुगठित कैसे बन जाते हैं कि हजारों पद बिना अटकन निकल आते हैं?
घंटों बोलने पर वोकल कॉर्ड्स कैसे जवाब नहीं देते?
क्या यह अभ्यास स्पीच थेरेपी में नई दिशा दे सकता है?
क्या ADHD, मेमोरी-लॉस या डिजिटल-डिस्ट्रैक्शन से लड़ने में यह अभ्यास सहायक हो सकता है?
उत्तर—हाँ। और जोरदार हाँ।
क्योंकि यहाँ सिर्फ स्मृति नहीं, श्रवण-पैटर्न रिकॉग्निशन, वोकल मसल ट्रेनिंग, रिदमिक न्यूरोलॉजिकल इम्प्रिंटिंग, गहरी संकेतनशील समझ—सब एक साथ कार्य कर रहे होते हैं।
भारतीय परंपरा में अवधानियों का उल्लेख आता है—वे बच्चे जो हजारों श्लोक एक बार सुनकर कंठस्थ कर लेते थे। आज ऐसे लोग सौ भी नहीं बचे। हजारों वेद शाखाएँ जो कभी जीवित थीं, आज चार-पाँच तक सिमट गई हैं।
जब परंपरा विलुप्ति की कगार पर हो, तब कोई एक युवक यदि असाधारण कौशल से उसकी लौ फिर प्रज्वलित करता है, तो समाज को गर्व होना चाहिए, उत्साह होना चाहिए, प्रेरणा होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश—हमारी सोशल मीडिया पीढ़ी ट्रोलिंग में ज्यादा रुचि रखती है, परंपरा के चमत्कार में कम।
कोई यह नहीं पूछता कि रोनाल्डो का गोल विज्ञान को क्या देता है, या किसी गायक की आवाज़ से इसरो का क्या लाभ है। लेकिन जैसे ही बात भारतीय ज्ञान परंपरा की आती है—लाभ-हानि का चश्मा पहन लिया जाता है।
सच यह है कि यह उपलब्धि हर उस वैज्ञानिक, हर उस विद्वान, हर उस समाज के लिए प्रेरणा है जो मानव मस्तिष्क की क्षमता को समझना चाहता है। दुनिया में मेमोरी-साइंस के जितने प्रयोग होते हैं, वे सब प्रयोगशाला की सीमाओं में बंधे होते हैं—यहाँ स्वयं मनुष्य प्रयोगशाला बन गया है।
दुनिया पूछेगी—“How did he do that?”
भारत उत्तर देगा—“क्योंकि यहां परंपरा आज भी जीवित है।”
और यही कारण है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने इस उपलब्धि को तुरंत सम्मान दिया—क्योंकि यह राजनैतिक मुद्दा नहीं, सांस्कृतिक धरोहर का पुनरुत्थान है।
हमारे पास वह परंपरा है जिसने ज्ञान को कागज पर नहीं, चेतना पर लिखा।
हमारी पीढ़ी फोन नंबर याद नहीं रख पाती—और ये साधक हजारों स्वरों की नदी को अपनी स्मृति में बहा देते हैं।
यह उपलब्धि सिर्फ देवव्रत की नहीं—यह भारत की अदम्य जीवटता, वैदिक विज्ञान की गहराई और मानव मस्तिष्क की अनंत क्षमताओं की घोषणा है।
और शायद यह घोषणा एक ही बात कहती है—
जिस भूमि ने वेदों को जन्म दिया, वहाँ स्मृति भी साधना है और साधना भी विज्ञान।
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