अरावली: ऊँचाई की परिभाषा, ज़मीन की हकीकत

अरावली का नाम आते ही बहुतों के मन में वही पुरानी “छठी कक्षा की भूगोल” जागती है—एक पुरानी पर्वत-श्रृंखला, जो राजस्थान से दिल्ली तक कहीं-न-कहीं सांस लेती है। लेकिन 2025 के अंत में अरावली अचानक फिर से समाचार, सोशल मीडिया और सड़कों पर लौट आई—इस बार वजह “पर्वत-शास्त्र” नहीं, “परिभाषा-शास्त्र” है।

विवाद का केंद्र एक नई परिभाषा है—अरावली की पहाड़ी वही मानी जाएगी जिसकी ऊँचाई 100 मीटर या उससे अधिक हो। साथ ही 100 मीटर से ऊँची दो या अधिक पहाड़ियाँ अगर एक-दूसरे से 500 मीटर की दूरी के भीतर हों, तभी उन्हें “अरावली रेंज” माना जाएगा। सुनने में यह तकनीकी-सी बात लगती है, मगर तकनीकी फैसलों के पीछे अक्सर सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय अर्थों की पूरी श्रृंखला खड़ी होती है। इसी “अर्थ-श्रृंखला” के कारण बवाल भी हुआ, प्रदर्शन भी हुए और सफाइयाँ भी आईं।

1) फैसला क्या है — और भ्रम कहाँ से पैदा हुआ?

फैसले का एक-लाइन वाला सार बहुत तेज़ी से फैल गया: 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ ‘अरावली’ नहीं। बस, यहीं से आशंका ने जन्म लिया—कि अब 100 मीटर से छोटी पहाड़ियों पर खनन का रास्ता खुल जाएगा; पहाड़ी की “टॉप से धरातल तक” खुदाई को वैध ठप्पा मिल जाएगा; और दिल्ली-एनसीआर जैसे इलाकों में अवैध/अर्धवैध गतिविधियों को नया “कानूनी कंबल” मिल जाएगा।

बवाल बढ़ा तो सरकार सामने आई। 22 दिसंबर की शाम पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि कुछ लोग गलत प्रचार कर रहे हैं। उनके अनुसार यह निर्णय सिर्फ “अरावली की परिभाषा” तय करने के लिए है, इसका मतलब यह नहीं कि 100 मीटर से छोटी सभी पहाड़ियों पर खनन शुरू हो जाएगा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि:

  • एनसीआर रीजन में माइनिंग अलाउ नहीं है—और एनसीआर का अर्थ दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद, नूंह और जहाँ तक अलवर का एनसीआर हिस्सा लगता है, वहाँ तक है। इसलिए “एनसीआर में माइनिंग” वाली बात उन्होंने “तथ्यहीन/झूठ” बताई।
  • नई माइनिंग लीज नहीं दी जाएगी, और यह बात निर्णय के भीतर भी मौजूद है।
  • अगर दो पहाड़ियों के बीच 500 मीटर का अंतर है, तो बीच का क्षेत्र भी अरावली रेंज का हिस्सा माना जाएगा—यानी रेंज को “टूटे हुए टुकड़ों” की तरह नहीं देखा जाएगा, बल्कि उनके बीच का जोड़ भी संरचना का भाग माना जाएगा।

यही वह बिंदु है जहाँ सरकार का दावा और जनता/विशेषज्ञों की चिंता आमने-सामने खड़ी हो जाती है। सरकार कहती है—यह परिभाषा संरक्षण को लागू करने और मनमानी रोकने में मदद करेगी। आलोचक कहते हैं—परिभाषा ही अगर अधिकांश भू-रूपों को बाहर कर दे, तो संरक्षण का दायरा सिकुड़ सकता है।

2) “नो न्यू लीज” वाली पंक्ति: आश्वासन का कानूनी आधार

सरकारी पक्ष केवल बयान नहीं था; उसमें अदालत के संदर्भ भी थे। इनपुट में उल्लेख है कि निर्णय के पैरा 38 में समिति की सिफारिश कही गई:
सस्टेनेबल माइनिंग सुनिश्चित करने के लिए अरावली हिल और रेंज में कोई नई माइनिंग लीज नहीं, सिवाय क्रिटिकल स्ट्रेटेजिक और एटॉमिक मिनरल्स के।

यानी प्रिंसिपल के स्तर पर नया खनन रोकने की बात कही गई है, और केवल कुछ अपवाद—जैसे क्रिटिकल/स्ट्रैटेजिक/एटॉमिक या 1957 के Mines and Minerals Act की सातवीं सूची में आने वाले खनिज (उदाहरण: कॉपर, गोल्ड, डायमंड, सिल्वर आदि) के लिए सीमित छूट का संकेत है। यह हिस्सा सरकार के तर्क को बल देता है कि निर्णय “खनन खोलने” का नहीं, बल्कि “खनन सीमित और नियंत्रित करने” का है।

3) अरावली: ऊँचाई से बड़ी उसकी भूमिका

यहाँ से दूसरा पक्ष शुरू होता है—पर्यावरण विशेषज्ञों का। उनकी दलील सादी है:
अरावली की अहमियत उसकी ऊँचाई में नहीं, उसके काम में है।

  • अरावली कुदरती जल-भंडार की तरह काम करती है। उसकी पथरीली बनावट बारिश के पानी को धीरे-धीरे जमीन में रिसाकर भूजल रिचार्ज करती है।
  • यही पानी राजस्थान के कई शहरों और दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद जैसे बड़े शहरी समूहों की जरूरतों में हिस्सा निभाता है।
  • अरावली थार रेगिस्तान की गर्म हवाओं को रोककर, गंगा-यमुना के मैदानों को रेगिस्तानीकरण से बचाने वाली भौगोलिक ढाल मानी जाती है।
  • इसमें तेंदुआ, लोमड़ी, नीलगाय, मोर जैसे जीवों के आवास हैं।
  • अरावली क्षेत्र में 4 टाइगर रिजर्व और 20 वाइल्डलाइफ सेंचुरी जैसी बात भी इनपुट में है—जो यह बताती है कि यह केवल चट्टानों का फैलाव नहीं, एक जीवित इकोसिस्टम है।

अब प्रश्न यह उठता है कि अगर किसी हिस्से की ऊँचाई 100 मीटर से कम है, पर वह जल-रिचार्ज, जैव-विविधता, हवा की दिशा/धूल नियंत्रण जैसे काम कर रहा है—तो क्या वह “कम महत्वपूर्ण” हो जाता है? विशेषज्ञों की चिंता यहीं से पैदा होती है।

4) अरावली की उम्र, लंबाई और फैलाव: क्यों यह साधारण मामला नहीं

इनपुट में अरावली की भूवैज्ञानिक उत्पत्ति का विस्तृत संदर्भ है—यह भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी पर्वत-श्रृंखलाओं में है; लगभग ढाई से डेढ़ अरब साल पहले प्लेट टेक्टॉनिक्स की प्रक्रिया से चट्टानों के मुड़ने-उठने से इसकी संरचना बनी। यह जानकारी विवाद को “समाचार” से निकालकर “सभ्यता-काल” में रख देती है—हम जिस भू-रूप पर बहस कर रहे हैं, वह हमारे राजनीतिक कालखंडों से कहीं पुराना है।

भौगोलिक रूप से:

  • यह 692 किमी लंबी पर्वतमाला है।
  • इसे जरगा रेंज, हर्षनाथ रेंज और दिल्ली रेंज—तीन हिस्सों में बाँटकर बताया गया।
  • औसत ऊँचाई 400–600 मीटर बताई गई है, और सबसे ऊँची चोटी गुरु शिखर (1722 मीटर) राजस्थान में है।
  • यह चार राज्यों—गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा को कवर करती है, जिसमें लगभग 80% हिस्सा राजस्थान में है।
  • दिल्ली पहुंचते-पहुंचते इसकी ऊँचाई घटती जाती है और यह “मैदान-सी” लगने लगती है; दिल्ली में इसके अवशेषों की चर्चा JNU, राष्ट्रपति भवन, रायसीना हिल्स जैसे संदर्भों के साथ आती है।
  • इससे बनास, साबरमती, साहिबी जैसी नदियां निकलती हैं।

ये तथ्य बतलाते हैं कि अरावली का विवाद केवल “एक राज्य” का मुद्दा नहीं; यह बहु-राज्यीय, बहु-विभागीय और बहु-हित वाला विषय है।

5) परिभाषा की जरूरत क्यों पड़ी—और विवाद क्यों बार-बार उठता रहा?

अरावली की “तयशुदा परिभाषा” लंबे समय तक स्पष्ट नहीं रही। समय के साथ इरोजन/कटाव ने इसके कई हिस्सों के फिजिकल स्ट्रक्चर बदल दिए। दिल्ली में छोटे-छोटे टीलों/पहाड़ियों पर कहीं किला, कहीं पार्क, कहीं शहरी निर्माण—तो सवाल उठा: क्या ये भी अरावली हैं? और अगर हैं, तो किस सीमा तक?

हरियाणा, राजस्थान, गुजरात—सबने अपने-अपने हिसाब से डेफिनेशन बनाई। पर पूरी श्रृंखला के लिए एक परिभाषा जरूरी थी ताकि संरक्षण एक साझा मानक पर हो सके। इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने समिति बनाकर परिभाषा तय करने के निर्देश दिए। यह काम मई 2024 में एक मल्टी-एजेंसी कमेटी को सौंपा गया, जिसमें केंद्र के पर्यावरण मंत्रालय के सचिव अध्यक्ष बने और चारों राज्यों के वन विभाग सचिव, FSI, CEC, GSI आदि के प्रतिनिधि शामिल किए गए। इसी कमेटी ने 12 अगस्त 2025 को नई परिभाषा बनाई और 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट की तीन-जजों की बेंच ने उसे स्वीकार किया।

कागज़ पर यह “प्रशासनिक स्पष्टता” का कदम लगता है। जमीन पर यही “स्पष्टता” विवाद की जड़ बन जाती है।

6) “90% अरावली संरक्षण खो देगी?”—यह डर कहाँ से आया

इनपुट के अनुसार 27 नवंबर 2025 को The Indian Express की रिपोर्ट का हवाला है कि FSI के आंतरिक आकलन में राजस्थान की 20 मीटर से अधिक ऊँचाई वाली 1281 पहाड़ियों में से केवल 100 मीटर से अधिक 1048 (रिपोर्ट में इसे 8.7% बताया गया) —और इससे निष्कर्ष निकाला गया कि नए मानकों से 90% से ज्यादा पहाड़ियां संरक्षण का दर्जा खो सकती हैं
यहीं से जन-आक्रोश और सोशल मीडिया का तापमान बढ़ता है। क्योंकि आम जन की समझ में बात इतनी ही जाती है: “जो 100 मीटर से छोटी, वह अरावली नहीं—तो बचाई कौन जाएगी?”

सरकार इसके जवाब में कहती है—यह गणित और मैपिंग गलत तरीके से पेश की जा रही है, और असल बात “खनन को वैध करना” नहीं है। लेकिन समस्या यहीं है: जब तक FSI की पूरी तुलना/मैपिंग रिपोर्ट सार्वजनिक और पारदर्शी तरीके से सामने नहीं आती, तब तक शंका का बाजार बंद नहीं होता।

7) सुप्रीम कोर्ट का पुराना रुख: क्या अदालत अचानक पलट सकती है?

इस बहस में एक बड़ा नैतिक प्रश्न भी है—जिस सुप्रीम कोर्ट ने दशकों से अरावली को अवैध खनन से बचाने की कोशिश की, वह अचानक ऐसा निर्णय कैसे कर सकता है जिससे खनन आसान हो?

इनपुट में पुराने घटनाक्रम इस दिशा में रोशनी डालते हैं:

  • 2014 में हरियाणा में अवैध खनन/स्टोन क्रशर यूनिट्स पर सख्ती और दोषी अफसरों पर केस की बात।
  • 2018 में NGT द्वारा गुरुग्राम में 6 हेक्टेयर जंगल कटाई रोकना।
  • 2018 में राजस्थान की अरावली में 31 पहाड़ियां गायब होने पर सुप्रीम कोर्ट का आश्चर्य, और 48 घंटे में अवैध माइनिंग रोकने का आदेश; कोर्ट का तर्क कि रॉयल्टी भले मिले, पर दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण/जीवन-खतरा स्वीकार्य नहीं।
  • 2019 में हरियाणा को चेतावनी—अरावली में कंस्ट्रक्शन के लिए कानून संशोधन मुश्किलें बढ़ाएगा।
  • 2020 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट का निर्देश—सुप्रीम कोर्ट कमेटी/पर्यावरण मंत्रालय की इजाजत के बिना कोई कंस्ट्रक्शन नहीं; अवैध काम पर कार्रवाई की छूट।

ये सारे उदाहरण बताते हैं कि न्यायपालिका ने अरावली को अक्सर “पर्यावरण-सुरक्षा” के नजरिए से देखा है। इसलिए वर्तमान विवाद का मूल प्रश्न यह नहीं कि अदालत ने “संरक्षण छोड़ा” या “खनन खोला”; मूल प्रश्न है—क्या नई परिभाषा संरक्षण लागू करने में सहायक बनेगी या संरक्षण के दायरे को सिकोड़ देगी?

8) PIB नोट और “मैपिंग”: असली लड़ाई यहीं तय होगी

सरकार ने भ्रम दूर करने के लिए PIB प्रेस नोट जारी किया। उसमें कहा गया कि 100 मीटर या उससे अधिक ऊँचाई वाली पहाड़ियों के चारों ओर “सबसे निचली सीमा रेखा” के भीतर आने वाला पूरा इलाका खनन के दायरे से बाहर होगा। पहचान के लिए Survey of India के नक्शे इस्तेमाल होंगे—ताकि यह स्पष्ट हो सके कि कौन सा इलाका अरावली में आता है और कौन नहीं; “मनमानी की गुंजाइश” कम हो।

यहाँ निष्पक्षता की कसौटी साफ है:

  • मैपिंग कैसे होगी?
  • डेटा सार्वजनिक होगा या नहीं?
  • स्वतंत्र वैज्ञानिक समीक्षा होगी या नहीं?
  • जल विज्ञान, जैव विविधता, भू-रिचार्ज जैसे पहलुओं को मैपिंग में कितना गहराई से जोड़ा जाएगा?

पर्यावरणविदों की मांग भी इसी दिशा में है—मैप्स और प्लान्स सार्वजनिक किए जाएँ, स्वतंत्र वैज्ञानिक समीक्षा कराई जाए। क्योंकि कानून और नोटिफिकेशन से ज्यादा निर्णायक यह होगा कि चीजें जमीन पर कैसे उतारी जाती हैं।

9) “कानून पहले भी थे” — फिर अवैध खनन क्यों नहीं रुका?

इनपुट में एक बेहद महत्वपूर्ण, लेकिन अक्सर अनदेखा पक्ष है—पर्यावरणविद याद दिलाते हैं कि खनन को लेकर कानून पहले भी थे, मगर राज्य सरकारें अवैध खनन रोकने में अक्षम रही हैं। यही अविश्वास विवाद को बड़ा बनाता है। जब जनता देखती है कि नियम होने के बावजूद “माफिया” चलते रहे, तो नई परिभाषा आते ही मन कहता है—“यह भी कहीं उसी खेल का हिस्सा तो नहीं?”

इस संदर्भ में राजनीतिक प्रश्न भी उठता है—केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार है; हरियाणा में नायब सैनी, राजस्थान में भजनलाल शर्मा, गुजरात में भूपेंद्र पटेल, और दिल्ली में नई सरकार—इनपुट के मुताबिक ये चारों भाजपा शासित राज्य हैं। ऐसे में सवाल पूछा जा रहा है कि दावों के बावजूद अवैध खनन पूरी तरह “क्रश” क्यों नहीं किया गया? और सरकार जो कह रही है—वह जमीन पर कितनी पुख्ता उतरेगी?

10) निष्कर्ष: परिभाषा बनाम विश्वास, तकनीक बनाम पारदर्शिता

निष्पक्ष रूप से देखें तो इस पूरे विवाद के दो सच हैं:

पहला सच (सरकारी/कानूनी):

  • निर्णय का टेक्स्ट “नई माइनिंग लीज” पर रोक और “इनवाइलेट जोन” जैसे प्रावधानों से नियंत्रण का संकेत देता है।
  • NCR में माइनिंग न होने का दावा और मैपिंग को सर्वे ऑफ इंडिया से जोड़ने की बात “मनमानी घटाने” का तर्क देती है।
  • संरक्षित क्षेत्रों के भीतर/पास खनन न होने, 1 किमी बफर, रामसर/वेटलैंड 500 मीटर जैसी सीमाएं “सख्ती” का ढांचा दिखाती हैं।

दूसरा सच (विशेषज्ञ/जन-आशंका):

  • अरावली की अहमियत ऊँचाई नहीं, इकोसिस्टम-फंक्शन है।
  • 100 मीटर की सीमा “भू-रूप” के बड़े हिस्से को बाहर कर सकती है, और अगर मैपिंग/डेटा अपारदर्शी रहा तो संरक्षण “कागज़ पर” रह सकता है।
  • अवैध खनन का पुराना अनुभव जनता के मन में अविश्वास बनकर बैठा है—और वही अविश्वास हर नई नीति को संदेह के कटघरे में खड़ा कर देता है।

अंततः, यह विवाद भारत की पर्यावरण नीति की सबसे बड़ी चुनौती को उजागर करता है—विकास के दबाव और प्राकृतिक सिस्टम्स की सुरक्षा के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। और इस संतुलन की असली परीक्षा सुप्रीम कोर्ट के आदेशों में नहीं, बल्कि मैपिंग की पारदर्शिता, डेटा की सार्वजनिकता, स्वतंत्र वैज्ञानिक समीक्षा, और कानून के निष्पक्ष पालन में होगी।

अरावली को “हम” बचाएँ या न बचाएँ—यह बहस चल सकती है।
पर सच तो यह है कि अरावली हमें बचाती रही है—रेगिस्तान की हवा से, पानी के संकट से, जैव-विविधता के क्षरण से।
अब यह देखना है कि परिभाषा का यह नया “कानूनी चश्मा” अरावली को स्पष्ट दिखाएगा—या उसे धुंधला करके और अधिक असुरक्षित बना देगा।

डॉ मुकेश 'असीमित'

डॉ मुकेश 'असीमित'

लेखक का नाम: डॉ. मुकेश गर्ग निवास स्थान: गंगापुर सिटी,…

लेखक का नाम: डॉ. मुकेश गर्ग निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान पिन कोड -३२२२०१ मेल आई डी -thefocusunlimited€@gmail.com पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से ) काव्य कुम्भ (साझा संकलन ) नीलम पब्लिकेशन से  काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन से  अंग्रेजी भाषा में-रोजेज एंड थोर्न्स -(एक व्यंग्य  संग्रह ) नोशन प्रेस से  –गिरने में क्या हर्ज है   -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह ) भावना प्रकाशन से  प्रकाशनाधीन -व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन  से  देश विदेश के जाने माने दैनिकी,साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित  सम्मान एवं पुरस्कार -स्टेट आई एम ए द्वारा प्रेसिडेंशियल एप्रिसिएशन  अवार्ड  ”

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