मेडिकल का आँचलिक भाषा साहित्य – बिंब, अलंकारों, प्रतीकों से भरपूर
देखिए, हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में जितना योगदान साहित्यकारों का है, उतना ही ग्रामीण आँचलिक परिवेश और उनकी स्थानीय बोलियों का भी है। मेडिकल क्षेत्र में भी यदि आँचलिक हिंदी से समृद्ध भाषा में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध हो जाए, तो शायद एक डॉक्टर के लिए चिकित्सा की जटिल पढ़ाई को समझना और उसे फील्ड में अप्लाई करना थोड़ा आसान हो जाए।
लेकिन अभी इस अलिखित साहित्य का असली रसास्वाद आप उस संवाद शैली से ले सकते हैं, जो डॉक्टर और मरीज़ के बीच गाँव-कस्बों की छोटी डिस्पेंसरियों में सहज ही फूट पड़ता है। मेडिकल कॉलेज के पाठ्यक्रम में ऐसे संवादों पर शोध होना अभी बाकी है, परंतु सच पूछिए तो उन संवादों में साहित्य के सारे तत्व मौजूद रहते हैं—बिंब, अलंकार, अतिशयोक्ति, रूपक और न जाने क्या-क्या। मरीज़ों के ये संवाद किसी दीर्घ कथा से कम नहीं होते, क्योंकि उनकी लघु से लघु शंका भी दीर्घ कथा के रूप में ही मुखरित होती है। उनकी वेदना, कथा में छिपे अर्थ और उसमें मौजूद गुढ़ार्थ को निकालना किसी साहित्यिक समीक्षक के वश की बात भले ही न हो, लेकिन एक डॉक्टर के वश की बात ज़रूर होनी चाहिए।
मेडिकल क्षेत्र में एक कहावत प्रचलित है— “प्रैक्टिस मेक्स ए मैन परफेक्ट”। शायद इसीलिए जीवन के चौथे पड़ाव में, चाहे कब्र में पैर लटकाए कोई डॉक्टर इलाज कर रहा हो, फिर भी वह सिर्फ प्रैक्टिस कर रहा होता है—कहानियों को समझने की प्रैक्टिस, जो मरीज़ अपने कष्टों की महागाथा के रूप में कहता है।
मरीज़ जानते हैं कि डॉक्टर अच्छे श्रोता होते हैं, इसलिए वे केवल इलाज कराने नहीं आते, बल्कि अपनी गढ़ी हुई कहानियाँ सुनाने भी आते हैं। मरीज़ की पूरी कोशिश रहती है कि उसकी कहानी में दर्द का विवरण इस कदर अतिशयोक्तिपूर्ण हो कि डॉक्टर के लिए भी उसे नज़रअंदाज़ करना असंभव हो जाए। मरीज़ तब तक संतुष्ट नहीं होता जब तक उसे यह न लगे कि डॉक्टर ने उसकी पूरी रामकहानी सुनकर ही “डायग्नोसिस” किया है।
इसके इतर, शहरों में एक अलग ही नज़ारा है। मरीज़ एडवांस में गूगल और चैटजीपीटी से अपनी कहानी साझा करके बीमारी की पहचान तो कर ही लेते हैं, साथ ही इलाज के कुछ विकल्प भी खोज लाते हैं। डॉक्टर के पास वे केवल क्रॉसचेक करने आते हैं कि डॉक्टर फर्जी तो नहीं है। या फिर कुछ जाँचें करवाने आते हैं जो गूगल बाबा ने सुझाई हैं, और जो वर्चुअली संभव नहीं हो पाईं। हो सकता है, इस बढ़ते चिकित्सीय परामर्श से प्रेरित होकर चैटजीपीटी और गूगल के भी अपने डायग्नोस्टिक सेंटर, परामर्श केंद्र, उपचार केंद्र खुल जाएँ— डॉक्टर-रहित, पूर्णतः रोबोटिक प्रयोगशालाएँ, मानव शरीर परीक्षण हेतु।
लेकिन शुक्र है कि ग्रामीण आँचल में यह सुविधा अब तक नहीं पहुँची है। वहाँ मरीज़ अभी भी डॉक्टर को डॉग डर का दर्जा देते हैं, और उन्हें अपनी रामकहानी सुनाने का भरपूर अवसर देते हैं। अब डॉक्टर की ज़िम्मेदारी है कि वह मरीज़ की भाषा, उसकी व्यथा में छिपे संकेतों को समझे, न कि ‘थ्री इडियट्स’ के मास्टरजी की तरह अधीर होकर पूछने लगे— “आख़िर कहना क्या चाहते हो?”
मान लीजिए, एक मरीज़ आया। वह दस मिनट से लगातार आपको यही समझा रहा है कि जब भी वह घरवाली से बात करता(बोलता है ) है, तो उसकी कमर में दर्द बढ़ जाता है, पेशाब में जलन होने लगती है। आप सिर हिला रहे हैं, हूँ-हाँ कर रहे हैं, उसकी कहानी के खत्म होने का इंतज़ार कर रहे हैं। आख़िर वह कहानी समाप्त कर आपकी ओर देखता है। अब आप कहते हैं— “ये तो ठीक है, लेकिन परेशानी क्या है?”
बस, यही तो हो गई न गड़बड़! मरीज़ ने इतनी विस्तृत कथा में संकेतों के ज़रिए अपनी परेशानी साफ़-साफ़ आपको बता दी, मगर आप पकड़ नहीं पाए। अब आप मेडिकल डिक्शनरी में इन लक्षणों को ढूँढ़ेंगे तो कहीं नहीं मिलेंगे। मरीज़ की इस गुढ़ व्यथा को समझने के लिए आपको उसी के बीच जाकर, उसी की भाषा में बातचीत करनी होगी। वह असल में यह कहना चाहता है कि घरवाली से अंतरंग संबंध या प्यार जताते हुए उसे ये दिक्कतें होती हैं। अब यह आपका कौशल है कि आप उसे बिना असहज किए, सरल और सम्मानजनक भाषा में, बिना अश्लील हुए समझ सकें।
अब देखिए, इन शाब्दिक प्रयोगों और जनप्रतीकों से जो कहानियाँ निकलती हैं, उनसे हमारा आँचलिक अनुभव अपने आप जुड़ जाता है। हर ग्रामीण क्षेत्र का एक अलग ही समृद्ध मेडिकल-संवाद साहित्य होता है।
कुछ उदाहरण यहाँ दिए जा सकते हैं, ये नितांत ही स्थानीय अनुभव हैं। जैसे एक मरीज़ कहता है— “पेट में मैठा -सा चाले है…”या ‘पेट में घुम्म सो उठे है’ यह ‘पेट दर्द’ का एक अप्रत्यक्ष लेकिन गहन रूपक है। फिर सुनिए— “पेट की नसें चली गईं…” नसें सिर्फ ख़ून नहीं बहातीं। ऐसे न जाने कितनी अदृश्य नसें शरीर में विद्यमान हैं—हड्डियाँ, तंत्रिकाएँ, आंतें—ये सब भी ‘नसें’ हो सकती हैं।
अब यह शब्द सुनते ही कोई भी ऑर्थोपेडिक, न्यूरोलॉजिस्ट या गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट परेशान हो जाएगा, क्योंकि मरीज़ इसे पेट की नसों से लेकर कमर, रीढ़, हाथ-पैर, जोड़ों और यहाँ तक कि सूजन या सूक्ष्म फ्रैक्चर तक से जोड़ सकता है। डॉक्टर लाख एक्स-रे दिखा दें, रेखाएँ खींचकर हड्डियों की टूटी दरारों का दर्शन करा दें, लेकिन मरीज़ आश्वस्त नहीं होगा। जैसे क्लासिकल इंडियन सिनेमा में विलेन को कितना भी मारो, वह आख़िरी सीन में उठकर एक बार ज़रूर वार करेगा—वैसे ही यहाँ, आपके दलीलों की मार से अविचलित मरीज़ इस संवाद के आख़िरी दृश्य में अपनी छाप छोड़े बिना नहीं जाएगा।
डॉक्टर साहब, आपकी पढ़ाई अपनी जगह… हम तो इसे नस जाना ही मानेंगे!”
ऐसा ही एक और प्रिय प्रयोग है—
“चक चली गई…”
यह कमर के दर्द, डिस्क स्लिप, स्पॉन्डिलाइटिस, या लुंबैगो जैसी किसी भी रीढ़ की बीमारी का एक शब्दीय निदान (वन-वर्ड डायग्नोसिस) है।
“घुम्म सा लग रहा है”, “जी उड़-उड़ रहा है”, “पेट में जी…”
ये सब ‘जी मिचलाना’, ‘घबराहट’, ‘एंग्जायटी’ या ‘डिस्पेप्सिया’ जैसी आधुनिक बीमारियों के लिए ग्रामीण बहुवचन हैं।
“आंटा पड़ गया पेट में”, “पेट की ऐंठन”, “आंत उतर गई” —
यह ऑब्स्ट्रक्शन से लेकर किसी भी पेट संबंधी बीमारी का प्रतीकात्मक निरूपण है।
ये सब शुद्ध पेट-दर्द या अपच के विविध रंग हो सकते हैं।
अब आइए एक और कॉमन शिकायत पर—
“हवा लग गई है…” या “वायु रोग”
यह सिर्फ पेट में गैस नहीं है, बल्कि यह गैस अपदान-उपदान-हल्कान कोई सी भी वायु बनकर शरीर के किसी भी अंग में प्रवेश कर सकती है। यह हवा कहीं भी घुस सकती है — पेट में, सिर में, रीढ़ की हड्डी में, घुटनों में — शरीर के किसी भी भाग में।
“हवा सिर में चढ़ गई”, “घुटनों में वायु बैठ गई”, “रीढ़ में हवा सी दौड़ रही है” — यह बताकर मरीज़ का तो मन हल्का हो जाता है, डॉक्टर का सिर भारी।
यह शब्द एक पंचवटी डायग्नोसिस है। लकवा, पेट फूलना, जोड़ दर्द, सिर दर्द — कुछ भी हो सकता है।
“हवा नहीं उसर रही, बाबा…?”
“हाँ थोड़ी-थोड़ी…”
यह ऑपरेशन के बाद बाबा की ओर से दिया गया जवाब है, जिसका इंतज़ार अस्पताल का डॉक्टर सदियों से करता आया है। जब तक ‘हवा पास’ नहीं होती, सर्जन की खुद की हवा बंद रहती है ऑपरेशन के बाद।
“हवा चढ़ गई”, “हवा नहीं निकली”, “हवा रुक गई”, “हवा बैठ गई” —
हर प्रकार की गंभीरता इसी ‘हवा’ के हिसाब से तय होती है।
जब आयुर्वेद ने तो इसे तीन तत्वों में ही सुलझा दिया — वात, पित्त, कफ,
गाँव वालों ने इसे दो में बाँट दिया — “ठंड लग गई” या “गर्मी चढ़ गई”।
मौसमी बीमारियों के यही दो ही रूप हैं।
इसके अलावा कुछ शब्द हैं जो अत्यंत बहुउपयोगी हैं—
“घुटने (गोड़े) बोल गए…”
जी हाँ, जैसे मैंने पहले बताया कि ‘बोलने’ और ‘बात करने’ की एक अलग ही व्यंजनापूर्ण सांकेतिक भाषा है। इसका और विस्तार—
सिर्फ लोग और लुगाइयाँ ही बोलते नहीं, कभी-कभार घुटने भी बोल जाते हैं।
जो कि घुटनों की बाय-आर्थ्राइटिस, घिसाव या अन्य किसी भी रोग का स्थानीय एक शब्दीय निदान है।
लेकिन उनकी तरफ़ से तो एक शब्द का निदान बस यही है— “गोड़ा बोल गया”।
ऐसा ही एक और बहु-प्रयोगी शब्द है— “बाय”,
जो जोड़ों में ऐसे ही अनचाहे मेहमान की तरह आता है जैसे बाकी शरीर के अलग अलग कम्पार्टमेंट में बिना टिकट कब्ज़ा जमाये घुसे पाइल्स , पायरिया, पथरी, प्रोस्टेट आदि!
और सबसे गहरा वाक्य—
“ऊपर की हवा का असर है…”
यह वाक्य एकदम अंतिम, परम प्रमाणिक निदान है — जब तक आप डॉक्टर होकर इसे ग़लत सिद्ध न कर सकें।
“जहाँ डॉक्टर की पहुँच नहीं, उससे ऊपर भी है इस ऊपरी हवा की पहुँच।”
यह डॉक्टर के बस की बात नहीं है जी — ‘ऊपर की हवा’ का असर है — इसे झाड़-फूँक कराओ, बाबा की भभूत लगाओ, कुछ अनुष्ठान कराओ, महामृत्युंजय जाप कराओ।
इन शब्दों — हवा, वायु, गैस, जी, बाय — और उनके प्रतीकात्मक प्रयोगों से ऐसा अनुपम, रोचक और जीवंत ग्रामीण मेडिकल साहित्य तैयार हो सकता है, जिसे पढ़कर ग्रामीण जीवन का व्यापक समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जा सकता है।
मैंने शुरुआत तो कर दी है… आप सभी भी आगे आइए — इस शास्त्र को और समृद्ध करने की ज़िम्मेदारी अब आपकी है।