जीवन की सारी जटिलताओं को सिर्फ़ तर्क की कसौटी पर कस देना भी उतना ही अधूरा लगता है, जितना हर अनजाने सवाल का जवाब ईश्वर के खाते में डाल देना।
ईश्वर—मेरे लिए—एक निष्कर्ष नहीं, एक सवाल है। और सवालों को जल्दी जवाबों में बदल देना अक्सर सोच को रोक देता है।
इन दिनों सोशल मीडिया पर जावेद अख़्तर और शमादल नदवी के बीच ईश्वर के अस्तित्व को लेकर बहस चर्चा में है। कोई इसे आस्था बनाम नास्तिकता की लड़ाई बना रहा है, कोई तर्क बनाम विश्वास की।
लेकिन मुझे इस बहस में एक बुनियादी उलझन दिखती है—
अगर ईश्वर को हम “तर्क-बुद्धि से परे” मानते हैं, तो फिर उसी सीमित तर्क-बुद्धि से उसके होने या न होने को सिद्ध करने की ज़िद क्यों?
मुझे अक्सर यह समझ में नहीं आता कि उस अनंत ईश्वरीय सत्ता को लेकर इतनी सेमिनारों, बहसों, व्याख्यानों और ट्रेंड करते हुए हैशटैग्स की ज़रूरत आखिर क्यों पड़ती है। ईश्वर पर चर्चा करते हुए हम उसे जानने की इतनी हड़बड़ी में रहते हैं कि उससे पहले स्वयं को जानने की ज़रूरत ही भूल जाते हैं।
विडंबना यह है कि आत्मज्ञान के बिना परमसत्ता को जानने का दावा किया जा रहा है।
यदि वेदांत को ही सही अर्थों में आत्मसात कर लिया जाए, तो वहाँ भी सबसे पहले आत्मा को जानने की बात कही गई है। “खुद को जानो”—यह कोई आधुनिक नारा नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन की मूल शर्त है। आत्मबोध के बिना ब्रह्मबोध की कल्पना ही अधूरी रह जाती है। संभव है कि जब आत्मबोध घटित हो, तो वह सुप्रीम कॉन्शसनेस, जो हर जगह व्याप्त है, किसी अलग आकाश में ऊपर बैठी हुई सत्ता की तरह दिखाई ही न दे।
लगभग सभी मज़हब और धर्म विश्वास और आस्था पर टिके हुए हैं। वे कहते हैं—मानो, श्रद्धा रखो, स्वीकार कर लो। लेकिन वेदांत का दर्शन विश्वास या आस्था की बात नहीं करता। वह अनुभव की बात करता है—प्रत्यक्ष अनुभूति की। वह कहता है कि सत्य को मानो मत, उसे जियो; उसे शब्दों में मत बाँधो, उसे स्वयं में घटित होने दो।
फिर यह ज़िद क्यों कि उस अनिर्वचनीय अनुभव को शब्दों में बाँधा जाए, तर्कों में क़ैद किया जाए, दार्शनिक थ्योरीज़ में उलझाया जाए—कभी regressive infinity, कभी contingent infinity और न जाने कितनी संकल्पनाओं के जाल में फँसाया जाए। जो अनुभव का विषय है, उसे सिद्धांत का विषय बना देने से हम शायद सच्चाई के और दूर ही चले जाते हैं।
ईश्वर को समझने की यह बौद्धिक बेचैनी अक्सर आत्मबोध से बचने का एक तरीका भी लगती है। बाहर की अनंतता पर चर्चा करना आसान है, भीतर की अनंतता से टकराना कठिन। इसलिए हम मंच बनाते हैं, व्याख्यान रखते हैं, बहसें करते हैं—लेकिन अपने भीतर उतरने से कतराते हैं।
ख़ुदा के होने या न होने पर झगड़ने से ज़्यादा ज़रूरी यह पूछना कि ख़ुदा की धारणा मनुष्य के मन में आई कैसे। यह सवाल किसी धर्म का नहीं, मनुष्य की उस भीतरी मनोवृत्ति का है जो अनिश्चितता, भय, मृत्यु, अकेलेपन और व्यवस्था की विफलताओं के सामने अपने लिए कोई स्थायी आश्रय गढ़ती है। इस अर्थ में ईश्वर एक निष्कर्ष नहीं, एक मानसिक सुविधा भी हो सकता है—एक ऐसा शब्द जो हमारी अज्ञानता के खालीपन में आसानी से फिट हो जाता है। यही वह जगह है जहाँ नीत्शे, रसेल, डॉकिन्स जैसे चिंतकों की परंपरा आपकी स्थापना से जुड़ती है—ईश्वर को सत्य के रूप में नहीं, मनुष्य की अनिश्चितता-प्रबंधन प्रणाली के रूप में देखने की परंपरा।
ऐसी स्थति में क्या हम यह नहीं कर सकते की —हम ठार जाएँ । आप ना “जानने’ को स्वीकार करें और ना ही “नहीं जानने को ,” और यह स्वीकारोक्ति किसी भी तैयार उत्तर को पकड़ लेने से ज़्यादा साहसी लगती है। क्योंकि ब्रह्मांड की कार्यप्रणाली हमारी समझ से परे है—इस पर चाहे आस्तिक हों या नास्तिक, दोनों को थोड़ी विनम्रता रखनी ही पड़ती है। पदार्थ क्या है, चेतना क्या है, समय क्या है—ये सवाल आज भी पूरी तरह उत्तरित नहीं हुए। क्वांटम भौतिकी ने न्यूटन-आइंस्टाइन की सहज, भरोसेमंद तस्वीर को हिलाया है; अनिश्चितता, एंटैंगलमेंट, और आधुनिक सिद्धांत हमें बार-बार बताते हैं कि “यथार्थ” शायद उतना सरल नहीं जितना हम अपनी भाषा में बना लेते हैं। ऐसे में किसी अभौतिक, सर्वव्यापी सत्ता पर अंतिम मुहर लगाना—चाहे स्वीकार में, चाहे अस्वीकार में—दोनों ही तरह की बौद्धिक जल्दीबाज़ी हो सकती है।
और यहीं सबसे दिलचस्प संदेह जन्म लेता है—अगर ईश्वर को “तर्क-बुद्धि से परे” कहा जाता है, तो फिर उसे तर्क-बुद्धि से सिद्ध या असिद्ध करने की इतनी हड़बड़ी क्यों? यह प्रश्न किसी एक पक्ष को खारिज नहीं करता; यह प्रश्न दोनों पक्षों से उनकी भाषा और उनकी पद्धति का हिसाब माँगता है। आस्तिक जब कहता है कि ईश्वर परे है, असीम है, प्रमाण से नहीं बँधता—तो फिर वह उसे अदालत-जैसे तर्कों में क्यों लाना चाहता है? और नास्तिक जब कहता है कि जो प्रमाणित नहीं, वह अस्वीकार्य है—तो क्या वह अपने ही प्रमाण-तंत्र की सीमाओं को भी उतनी ही गंभीरता से देखता है? यही वह सूक्ष्म बिंदु है जहाँ इन बहसों में कम से कम अज्ञेयवाद एक “बचाव का रास्ता” नहीं, बल्कि “बौद्धिक ईमानदारी” का नाम बनता है।
फिर एक और परत खुलती है—क्या ;न मानना; भी किसी स्तर पर ;मानना ;नहीं है? जब हम कहते हैं “ईश्वर नहीं है”, तो हम भी किसी निश्चित फ्रेम में खड़े होते हैं। भारतीय दर्शन ने इस उलझन को बहुत पहले पहचान लिया था। वैदिक परिभाषा में नास्तिक वह है जो वेद-प्रामाण्य नहीं मानता; ईश्वर-निषेध मात्र नास्तिकता की पूरी परिभाषा नहीं। सांख्य जैसी परंपराएँ ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानतीं, फिर भी वे एक सुसंगत, गहन और नैतिक दर्शन रच देती हैं। इससे यह साफ़ होता है कि नैतिकता का स्रोत अनिवार्य रूप से “ईश्वर का भय” नहीं है—और न ही ईश्वर-स्वीकृति अपने आप में अमानवीय होने का प्रमाण है। मनुष्य का मन इससे कहीं अधिक जटिल है।
नैतिकता के प्रश्न पर, ईश्वरवाद और नास्तिकता—दोनों ही पक्षों से अक्सर ऐसे तर्क दिए जाते हैं जो न तो संगत होते हैं, न ही व्यवहारिक धरातल पर टिकते हैं। उदाहरण के लिए, जब यह कहा जाता है कि नैतिकता का निर्धारण ईश्वर करता है, तो उसी के साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि मनुष्य को free will यानी स्वतंत्र इच्छा ईश्वर की देन है।
अब यहीं पहला विरोधाभास खड़ा हो जाता है।
यदि मनुष्य स्वतंत्र इच्छा से संपन्न है, तो फिर इस संसार में हज़ारों वर्षों से जो कुछ घटित हो रहा है—संघर्ष, भूखमरी, अत्याचार, युद्ध, नरसंहार और जेनोसाइड—क्या वह ईश्वर की इच्छा है, या मनुष्य की उसी स्वतंत्र इच्छा का परिणाम?
और यदि यह सब मनुष्य की free will का परिणाम है, तो फिर ईश्वर को नैतिक निर्णायक के रूप में बीच में लाने का औचित्य क्या रह जाता है?
अक्सर यह भी कहा जाता है कि प्रकृति ही ईश्वर है। लेकिन यदि प्रकृति ईश्वर है, तो एक तथ्य बहुत साफ़ है—प्रकृति कभी न्याय नहीं करती।प्रकृति के पास कोई नैतिक पैमाना नहीं होता।
वह यह तय नहीं करती कि कौन सही है, कौन ग़लत; कौन पवित्र है, कौन अपवित्र।
भूकंप निर्दोष और दोषी में भेद नहीं करता, बाढ़ धार्मिक पहचान नहीं पूछती, बीमारी नैतिक चरित्र देखकर हमला नहीं करती। प्रकृति केवल cause and effect पर काम करती है, नैतिक न्याय पर नहीं।
नैतिकता दरअसल मनुष्य की सामाजिक रचना है। नियम, क़ानून, दायित्व, सह-अस्तित्व—ये सब इंसानी अनुभवों से जन्मे हैं। समस्या तब शुरू होती है जब इन मानवीय नैतिक नियमों को किसी एक विशेष धर्म या मज़हब से जोड़ दिया जाता है और फिर यह घोषित कर दिया जाता है कि जो मेरे ईश्वर और मेरी किताब के अनुसार नैतिक है, वही सार्वभौमिक रूप से नैतिक है—भले ही वह दूसरे समाजों और मनुष्यों के लिए अनैतिक क्यों न हो।
यहीं से नैतिकता का सबसे ख़तरनाक विकृतिकरण शुरू होता है। नैतिकता अब मानवीय करुणा या विवेक पर नहीं, धार्मिक पहचान पर निर्भर हो जाती है।
इस प्रक्रिया में नैतिकता का उद्देश्य—मनुष्य को मनुष्य के प्रति ज़िम्मेदार बनाना—कहीं पीछे छूट जाता है, और उसकी जगह “हम नैतिक हैं, क्योंकि हम सही धर्म में पैदा हुए हैं” जैसी आत्मसंतुष्ट धारणा ले लेती है।
यही वह बिंदु है जहाँ नैतिकता मूल्य नहीं, हथियार बन जाती है—अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को अनैतिक साबित करने का औज़ार।
क्योंकि जिस नैतिकता को जाँचने, प्रश्न करने और मानवीय अनुभव से सुधारने की अनुमति नहीं है—वह नैतिकता नहीं, सिर्फ़ आज्ञाकारिता है।
अगर कोई व्यक्ति चोरी इसलिए नहीं करता कि “ऊपर बैठा कोई देख रहा है”, या “दोज़ख़/नरक का डर है”, तो यह नैतिकता नहीं—सिर्फ़ निगरानी-जनित अनुशासन है। निगरानी हटते ही यह अनुशासन ढह सकता है। नैतिकता का वास्तविक क्षण तब आता है जब आदमी यह मानते हुए भी कि कोई सर्वज्ञ न्यायालय नहीं, कोई परलोकिक पुरस्कार नहीं, फिर भी अच्छा बनने को चुनता है—क्योंकि वह भीतर से जानता है कि पीड़ा देना गलत है, अन्याय गलत है, अपमान गलत है। यही किरदार है—और यही मनुष्य की गरिमा भी। इस दृष्टि से आपकी बात केवल तर्क नहीं करती, वह मानवीय सम्मान के पक्ष में खड़ी होती है।
लेकिन आप उतनी ही साफ़ दृष्टि से यह भी देख रहे हैं कि असली समस्या शायद “ईश्वर” नहीं, उसके संगठित और राजनीतिक रूप हैं। जब आस्था पहचान बन जाती है, जब धर्म सत्ता का उपकरण बन जाता है, जब पूजा के साथ श्रेष्ठता-बोध और दंड-भय जोड़ दिए जाते हैं—तब नैतिकता नहीं, भीड़-आज्ञाकारिता पैदा होती है। और भीड़ का धर्म अक्सर विवेक को खा जाता है। इतिहास यह भी दिखाता है कि ईश्वर को न मानने वाले भी अत्याचार से अछूते नहीं रहे, और ईश्वर में आस्था रखने वाले भी करुणा, सेवा और त्याग के उच्च उदाहरण बने हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि मूल रोग आस्था-अनास्था नहीं, बल्कि मनुष्य की सत्ता-लालसा, भय-व्यवसाय और बौद्धिक आलस्य है—वह आलस्य जो कठिन प्रश्नों की जगह रेडीमेड उत्तर पसंद करता है।
इसीलिए हम बहस के मैदान से निकलकर काम की ज़मीन पर आएँ। कौन-सा काम? वही जो हमारे वश में है—अपनी बुद्धि, अपने विवेक, अपनी करुणा, और अपने कर्म को बेहतर बनाना; खुद को और समाज को थोड़ा अधिक ईमानदार, थोड़ा अधिक न्यायपूर्ण बनाना। ब्रह्मांड के एक अंश को भी हम पूरी तरह नहीं समझ पाए, और हम सर्वसत्ता पर अंतिम फैसला लिखने निकल पड़े—यह स्थिति कभी-कभी हास्यास्पद भी लगती है और दुखद भी। अज्ञेयवाद यहाँ हार नहीं, विनम्रता है: “मैं अभी नहीं जानता, पर जानने की ईमानदार कोशिश करूँगा; और तब तक जीवन को बेहतर बनाने का काम नहीं रोकूँगा।”
मेरी असहमति आस्था से नहीं, निश्चितता से है। मैं उन घोषणाओं से असहमत हैं जो हर प्रश्न को अंतिम उत्तर में बदल देती हैं—चाहे वह धार्मिक कट्टरता हो, या नास्तिकता का वैचारिक अहंकार। मैं उस प्रश्नाकुलता के पक्ष में जून जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती है। और शायद सभ्य समाज की कसौटी भी यही होगी—कि वहाँ मानने वाला भी सुरक्षित हो, न मानने वाला भी सुरक्षित हो; और दोनों अपने-अपने विश्वास/अविश्वास को विवेक, आत्मालोचन और मानवीय व्यवहार से गुजरने दें। क्योंकि अंत में, ईश्वर पर बहस जीतना नहीं—मनुष्य होना बचाए रखना ज्यादा बड़ा काम है।
ईश्वर को जानने से पहले यदि मनुष्य स्वयं को जानने का साहस कर ले, तो संभव है कि ईश्वर की तलाश अपने आप अप्रासंगिक हो जाए। तब न उसे ऊपर बैठा कोई नियंता चाहिए होगा, न उसे सिद्ध करने या नकारने की हड़बड़ी। तब जो शेष बचेगा, वही शायद सत्य होगा—बिना नाम का, बिना रूप का, लेकिन पूरी तरह अनुभूत।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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