“मैं झूठ की तलाश में हूँ”
मैं सच की तलाश में नहीं निकला,
क्योंकि सच अब
दीवार पर टंगे कैलेंडर-सा है—
हर महीना बदले, पर तारीखें वही रहें।
मैं निकला झूठ की तलाश में—
उस झूठ की,
जिसे आईने ने चेहरे की तरह ओढ़ लिया,
और लोगों ने उसे
सच मानकर काजल की तरह आँखों में बसा लिया।
मैं खोज रहा हूँ
वो झूठ, जो
प्रार्थनाओं और सजदों में दोहराया गया,
सड़क , संसदों और टीवी डिबेटों में
जिसे ‘जन-भावना’ कहा गया।
मैं उस झूठ के पीछे हूँ
जिसे बच्चे की किताब में
‘राष्ट्रगान’ बनाकर छापा गया,
और पाठशाला ने कहा—
“यह तुम्हारा भविष्य है।”
मैं ढूँढ रहा हूँ
वह झूठ जो सच से ज़्यादा
संवेदनशील, आकर्षक और भरोसेमंद बन बैठा,
जो आँखों में नहीं
श्रद्धा में उतरा
और सवालों को
देशद्रोह ठहरा दिया।
मैं सच की नहीं,
उस झूठ की तलाश में हूँ
जो चिपका हुआ है चेहरे पर मुस्कान की तरह ,
लेकिन दिल के भीतर
क्रोध का कैन्सर उगाता है।
जिसे हर बार
Breaking News कहकर परोसा गया
और हम चुपचाप खाते रहे
जैसे कोई मंदिर का प्रसाद।
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सामाजिक और राजीएंतिक परिवेश पर तीखा व्यंग्य करती आपकी रचना..वाह मुकेश जी