पेशे से अस्थिरोग चिकित्सक और नवोदित साहित्यकार डॉ. मुकेश ‘असीमित’ का काव्य-संग्रह ‘समय के साए’ समकालीन जीवन की विषम चुनौतियों और संवेदनाओं को उजागर करता है। इस संग्रह की कविताएँ सामाजिक विसंगतियों, बाजारवाद के प्रभावों, लोकतंत्र की विडम्बनाओं तथा स्वतंत्रता की पीड़ा पर तीव्र कटाक्ष प्रस्तुत करती हैं। कवि ने आधुनिक युग में मानव व्यवहार और मूल्यों में आए परिवर्तन को गहरी संवेदना से छुआ है। उदाहरणस्वरूप “अधूरी माप-तौल” में कवि ने तकनीक-प्रधान युग में इंसान को मात्र आंकड़ों द्वारा मापे जाने का व्यंग्यपूर्ण चित्रण किया है:
“वे उँगलियाँ, जो कभी मिट्टी में बोए दानों की गिनती से, जोड़ती थी अपनी दुनिया। अब मापती है आदमी की ऊँचाई—जूतों के तले से लेकर मोबाइल के कैमरे के मेगापिक्सल तक।”
यह पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि बीते ज़माने में सूक्ष्म बीज गिनकर दुनिया जोड़ी जाती थी, लेकिन अब इंसान की ऊँचाई तक तकनिकी मशीनों से नापी जा रही है। यही नहीं, कवि जंगल के भीतर बेजान विज्ञापन-पक्षियों का व्यंग्यपूर्ण चित्र खींचता है—
“जंगल के भीतर लताएँ सच का गला घोंटती हैं, पेड़ खड़े हैं, पर जड़ें मुनाफे की मिट्टी में धँसी हैं। यहाँ पक्षी गीत नहीं गाते, बल्कि विज्ञापन पढ़ते हैं।”
इन पंक्तियों में प्रकृति के शांत कोने भी बाजारवाद और अधर्म के जाल से दूषित हो गए हैं, जहाँ अब पक्षी संगीत नहीं, बल्कि व्यावसायिक संदेश सुनाते हैं। इसी तरह “आँकड़े बोलते हैं जी” कविता में सामाजिक आंकड़ों का रूपक प्रयोग है, जिसमें कवि आंकड़ों को सच बोलने वाला पात्र बना देता है:
“तुम्हारे खून-पसीने का हिसाब अब गिने हुए नंबरों में समट गया है। आंकड़े बोलते हैं जी, सिर्फ बोलते नहीं, तुम्हारे भविष्य का गणित भी हल करते हैं। और तुम? बस चुपचाप देखते रहो, उनकी गूंज में खोते रहो।”
यहाँ श्रमजीवी की मेहनत भी संख्याओं में समेट दी गई है, और आंकड़ों को लोकतंत्र की बड़ी देन बता दिया गया है, जिससे सब कुछ मापनीय और नियंत्रित हो गया है। कवि इस पंक्ति के माध्यम से पाठक पर प्रश्न खड़ा करता है – क्या हम स्वचालित गणना की चौखट में रहते हुए अपनी जिम्मेदारियाँ भूल गए हैं?
स्वतंत्रता पर केंद्रित “आजादी का बोझ” कविता में कवि ने आम जनमानस की व्यथा बयान की है। इस कविता में व्यक्ति कहता है कि उसे बस जीवनयापन चाहिए, अतः ‘आजादी’ उसके लिए बोझ बन चुकी है:
“हम केवल रोटी चाहिए। रोटी में भरा आराम, निंद्रा में लिपटी ईश्वरमय सी सुरक्षा। आज़ादी? वह तो काँटों का मुकुट है, जिसे पहनने की ताकत हमने खो दी है।”
यहाँ “काँटों का मुकुट” स्वतंत्रता की उस पीर को दर्शाता है जिसे आम आदमी सहन नहीं कर पाता। कवि आगे प्रस्तुत करता है कि दबे-कुचले जन ने गुलामी को आत्मसात कर लिया –
“हम स्वीकार लिए गुलामी, मना लिए किसी महापापी को, जो कह दे— ‘मैं तुम्हारे पाप उठा लूंगा’।”
इस व्यंग्य में शोषित वर्ग की व्यथा और उनकी मजबूरी झलकती है; स्वतंत्रता संघर्ष महापुरुषों के लिए तो सपना थी, किन्तु भूखे-नंग जनता के लिए स्वाद-हीन बोझ साबित हुई।
अन्य कविताओं में भी मानवीय संवेदनाएँ, आत्मसंघर्ष और आत्मचिंतन उभरकर आते हैं। कवि अक्सर आत्म-विश्लेषण करता है। उदाहरणतः “मैं आईना…” कविता में आत्म-दर्शन की पीड़ा है:
“मैं आईना, अनन्त, अविचनीय, मेरी व्यथा, मेरा अकेलापन, मेरा संसार।”
इन पंक्तियों में कवि खुद को “आईना” कहकर अपनी अंतर्निहित पीड़ा और अकेलेपन की अभिव्यक्ति करता है। इसी तरह “आत्म की अनुगूंज” जैसी कविताएँ आत्मबोध तथा जीवन के अस्तित्व पर प्रश्न उठाती हैं। इस प्रकार, कवि ने समकालीन जीवन, आत्मिक चेतना और सामाजिक विसंगतियाँ को काव्य के विभिन्न रूपकों—जैसे आंकड़े, कचरा, आईना, वह खंडित ताजमहल (जब कविता “आँकड़े” में देखती है कि ताजमहल के नीचे कमाई का मलबा दफन है) से बुना है। कवि का दृष्टिकोण संवेदनशील और आलोचनात्मक है; वह अपने समय को महान या आदर्श के रूप में नहीं देखता, बल्कि उसमें व्याप्त विकृतियों को उजागर कर पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है।
‘समय के साए’ की भाषा शुद्ध एवं प्रभावपूर्ण है। डॉ. असीमित ने अपनी कविताओं में साधारण शब्दों के साथ-साथ गूढ़ अलंकारों का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में कहीं कहीं संस्कृत भार भी है (जैसे “अनिर्वचनीय ”, “नैसर्गिक ”, “सत्यात्मा”), जिससे कविताएँ औपचारिक स्तर पर दृढ़ होती हैं। छंद-विधान की दृष्टि से ये कविताएँ अधिकांशतः मुक्त छंद में हैं; कवियों ने पारंपरिक छंद-रचना के बंधन में न बँधते हुए विचारों को सहजता से प्रवाहित होने दिया है।
कवि ने गहरी बिम्बात्मक छवियाँ रची हैं। उदाहरणार्थ, “आंकड़े बोलते हैं” में आँकड़ों को जीवंत कर दिया गया है – वे ‘सज-धज कर खड़े’ हैं और ‘अपनों के ताजमहल के नीचे गाढ़ी कमाई का मलबा’ बताते हैं, जो साम्राज्य और शोषण की व्यर्थता को दिखाता है। यहां व्यंग्यात्मक विरोधाभास का सुंदर उपयोग है कि ताजमहल जैसा विशाल स्मारक भी नीच इरादों की कब्रगाह बन चुका है। इसी प्रकार “आजादी का बोझ” में स्वतंत्रता को काँटों का मुकुट कहा गया है, जो रूपक (मेटाफर) का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस रूपक से प्रसंग की तीक्ष्ण व्यथा झलकती है – जो मुकुट होना चाहिए, वो कांटों का बन गया, अर्थात़ आजादी में कम कांटे हैं जितने कि अँधेरे में दबते सुख में।
और “कचरा कचरा ही रहेगा” कविता में ‘कचरा’ प्रतीकात्मक रूप से खराब विचारों और सामाजिक भ्रष्टाचार को दर्शाता है। कवि लिखता है:
“कचरा — जो केवल सड़कों पर नहीं, संस्कार और बोध के मध्य भी उगता है… उसे उड़ाओ, तो वह झंडे पर चिपक जाएगा। … कचरा, कचरा ही रहेगा। स्वर्णमृग की खाल ओढ़ भी ले, तो अंततः—जूते के नीचे ही दबेगा।”
यहाँ अलंकार के अंतर्गत उपमा-पूर्ण चित्रण है: कचरा भले ही सुंदर परदे में ओढ लिया जाए (स्वर्णमृग की खाल), पर वह वास्तविकता में फेंके हुए कचरे की तरह ही नीचे दब जाएगा। झंडे (राष्ट्रवाद) और स्वर्णमृग (लोभ) की आकृतियों में भी वही ‘कचरा’ मौजूदा रहेंगे, यह कवि की कटु टिप्पणी है।
कविताओं की वाक्य रचना सरल लेकिन प्रभावपूर्ण है। कवि अक्सर छोटे-छोटे वाक्यों में गहरा संदेश छुपाता है और कहीं-कहीं रोचक प्रश्न और विस्मयादिबोधक वाक्यों का प्रयोग करता है। “आत्ममुग्ध नृत्य” कविता में यह शैली विशेष प्रभावशाली है:
“हमारे हाथों से रोटी छीन ली गई, दवा महँगी हो गई, पर हथेलियाँ बची हैं—ताली बजाने को, अपने ही दासत्व पर ताली बजाने को।… जहाँ भ्रम मनोरंजन है, फ़रेब गान है, और ताली—हमारी गुलामी का सबसे बड़ा प्रमाण है।”
यहां अलंकार में विरोधाभास छिपा है: भूखा-प्यासा रहने पर भी इंसान अपनी कलाइयों पर ही खुश है कि उसके हाथों में ताली बजाने की क्षमता तो है। “मनोरंजन”, “फरेब”, और “ताली” को सजाकर कवि एक पर्व जैसा दृश्य रचता है, जो हमारी वर्तमान दशा की डरावनी व्यंजना है। यह दिखाता है कि कवि कला-सौंदर्य के लिए स्वप्निल अलंकार नहीं, बल्कि तीखे व्यंग्य, प्रतिमान एवं ज्वलंत छवियों का सहारा लेते हुए नैतिक-सामाजिक सच सामने लाता है।
इस संग्रह में भावात्मक तीव्रता भी है। कवि अपने विचारों को संकोच-मुक्त अभिव्यक्त करता है – कहीं आक्रोश है (जैसे “आजादी का बोझ” में ऊँची कड़काई), कहीं व्यंग्य (जैसे “आत्ममुग्ध नृत्य” में अदूरदर्शिता पर कटाक्ष), तो कहीं अंतर्मन की पीड़ा (जैसे “मैं आईना…” में आत्मदर्शन की संवेदना)। कविताएँ सुरक्षात्मक प्रसंगों से उत्पन्न नहीं, बल्कि डायरेक्ट रूप से पाठक की संवेग-तंत्रिका को झकझोरती हैं। समग्रतः शिल्प की दृष्टि से ये कविताएँ मुक्त छंद, रूपक और विरोधाभास के भरपूर प्रयोग द्वारा प्रस्तुत की गई हैं, जो अकादमिक स्तर की समीक्षा में गहराई प्रदान करती हैं।
समकालीन कवियों से तुलनात्मक झलक
कवि की शैली में समकालीन रचनाकारों के गुच्छे दिखाई देते हैं। उदाहरणतः डॉ. कुमार विश्वास जैसी कविताओं में जो देशभक्ति और सामाजिक भावना मिलती है, वैसी संवेदना डॉ. असीमित की रचनाओं में भी है; किंतु असीमित का स्वर कहीं अधिक कटु और मार्मिक है। विष्णु नागर की तरह सरल व प्रासंगिक भाषा का प्रयोग असीमित में भी दिखता है, पर नागर जी जहाँ कल्पना-पटल पर किंवदंतियाँ गढ़ते हैं, वहीं असीमित सीधे यथार्थ के ताबूत के कील ठोक देता है। राजेश जोशी की मुक्त छंद शैली का असर असीमित की कविताओं पर भी स्पष्ट है, फिर भी जोशी की विशुद्ध मानवीय संवेदनाएँ अधिक नरम हैं जबकि असीमित सामाजिक विषमताओं के प्रति तीव्र मुखरता अपनाते हैं। दुष्यंत (धूमिल) की विद्रोहात्मक शक्ति और व्यंग्य-अभिव्यक्ति से असीमित में अंतर्सम्बंधितता है – दोनों अपने-अपने समय की कुरीतियों पर तीखे कटाक्ष करते हैं। तथापि, डॉ. असीमित अपनी भाषा एवं दृष्टि में मौलिक हैं; वे रोमांटिक नहीं होकर समकालीन यथार्थ की विवेचना करते हैं। उदाहरणार्थ, “आंकड़े बोलते हैं जी” में आँकड़ों के ज़रिए आर्थिक-राजनीतिक मर्मदर्शिता दर्शाना और “कचरा कचरा ही रहेगा” में नैतिक-सामाजिक अधो गति दिखाना, यह उस वक्त की आवश्यकता के अनुरूप विषय-चयन है, जो इस संग्रह को विशिष्ट बनाते हैं।
समग्रतः डॉ. मुकेश ‘असीमित’ का ‘समय के साए’ अपने पठनीयता में गम्भीर है। इसके काव्य-शिल्प की सादगी के पार, विचारों की गूढ़ता है। कविताएँ थोड़ी-कठोर तो हैं, पर साहित्यिक दृष्टि से वे गहरी विश्लेषणात्मक होती हैं। उन्होंने बाज़ारवाद, लोकतंत्र, स्वातंत्र्य, सामाजिक अन्याय और आत्म-चेतना के विषयों को महत्व दिया है, और उपयुक्त बिम्बों (जैसे आँकड़े, जेब में चूहे, झंडा, मतदाताओं की भीड़-ताली आदि) के माध्यम से व्यापक अर्थस्थापन किया है। इस दृष्टि से ‘समय के साए’ एक समृद्ध काव्य-पुस्तक है जो आज के आम हिंदी पाठक को भी गंभीरता से सोचने पर विवश कर देगी।
‘समय के साए’ की सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धि यह है कि यह संग्रह कविता को सजावटी भावुकता से निकालकर विचार की जिम्मेदारी सौंपता है। डॉ. मुकेश ‘असीमित’ की कविताएँ पाठक से केवल सहानुभूति नहीं चाहतीं, बल्कि उसे असहज करती हैं, प्रश्नों के कठघरे में खड़ा करती हैं और बार-बार यह महसूस कराती हैं कि यह समय केवल बीतने की वस्तु नहीं, बल्कि मनुष्य के नैतिक पतन और संवेदनात्मक क्षरण का साक्षी है। कवि का ‘समय’ कोई दार्शनिक अमूर्तन नहीं है, बल्कि वह अख़बारों, संसद, बाज़ार, सोशल संवाद और रोज़मर्रा के व्यवहार में साँस लेता हुआ जीवित समय है। यही कारण है कि संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए पाठक को बार-बार यह अनुभव होता है कि ये पंक्तियाँ किसी दूर खड़े कवि की नहीं, बल्कि उसी समाज के भीतर खड़े एक जागरूक नागरिक की हैं।
इस संग्रह में बार-बार उभरने वाला एक महत्वपूर्ण तत्त्व है — लोकतंत्र की आंतरिक खोखलाहट। कवि लोकतंत्र को आदर्श ग्रंथों की भाषा में नहीं, बल्कि व्यवहारिक यथार्थ में देखता है।
‘आत्ममुग्ध नृत्य’ जैसी कविता में तालियों का रूपक असाधारण है। तालियाँ सामान्यतः उत्सव, सहमति और आनंद का संकेत होती हैं, किंतु यहाँ वही तालियाँ गुलामी का प्रमाण बन जाती हैं। यह उलटाव (Inversion) आधुनिक हिंदी कविता में कम देखने को मिलता है। कवि यह संकेत करता है कि जब नागरिक अन्याय पर भी तालियाँ बजाने लगे, तब लोकतंत्र केवल एक अभिनय भर रह जाता है। इस कविता में “शर्म मनोरंजन है, फ़रेब राग है” जैसे वाक्यांश लोकतंत्र के नैतिक विघटन को अत्यंत तीखे ढंग से रेखांकित करते हैं। यह व्यंग्य न तो हल्का है, न ही सतही; यह पाठक को भीतर तक चुभता है।
भाषा की दृष्टि से डॉ. असीमित का काव्य-शिल्प विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे न तो अत्यधिक संस्कृतनिष्ठता में फँसते हैं और न ही अनावश्यक बोलचाल की ढील देते हैं। उनकी भाषा में एक संतुलित गंभीरता है, जो अकादमिक समीक्षा की कसौटी पर भी खरी उतरती है और आम पाठक को भी बोझिल नहीं लगती। उदाहरण के लिए ‘कचरा कचरा ही रहेगा’ जैसी कविता में प्रयुक्त शब्दावली अत्यंत साधारण है, किंतु भावार्थ अत्यंत गहन है। “स्वर्णमृग की खाल” और “झंडे पर चिपक जाने” जैसे बिंब भाषा को लोक-संवेदनाओं से जोड़ते हैं, जबकि अर्थ-स्तर पर वे राजनीतिक, सांस्कृतिक और नैतिक पाखंड को बेनकाब करते हैं। यह द्विस्तरीय प्रभाव ही इस संग्रह की शक्ति है।
इस संग्रह की एक और उल्लेखनीय विशेषता है — कवि का आत्मसंघर्ष और आत्मालोचन। ‘मैं आईना…’ और ‘आत्म की अनुगूंज’ जैसी कविताओं में कवि केवल समाज की आलोचना नहीं करता, बल्कि स्वयं को भी उस समय और व्यवस्था का हिस्सा मानकर देखता है। वह स्वयं को निर्दोष दर्शक की तरह प्रस्तुत नहीं करता। यह आत्म-आलोचनात्मक दृष्टि समकालीन कविता में दुर्लभ होती जा रही है। कवि यह स्वीकार करता है कि मौन भी अपराध हो सकता है, और चुप्पी भी व्यवस्था का सहायक बन सकती है। यही नैतिक ईमानदारी इस संग्रह को वैचारिक रूप से विश्वसनीय बनाती है।
काव्यात्मक संरचना की दृष्टि से यह संग्रह मुक्त छंद का सशक्त उदाहरण है। यहाँ छंद की अनुपस्थिति किसी कमी की तरह नहीं, बल्कि विचारों की स्वतंत्र गति का माध्यम बनती है। पंक्तियाँ कहीं-कहीं गद्यात्मक प्रतीत होती हैं, पर उनमें कविता की आत्मा पूरी तरह विद्यमान है। यह शैली उस परंपरा से जुड़ती है जिसमें कविता विचार का विस्तार बन जाती है, न कि केवल भावनात्मक विस्फोट। यह प्रवृत्ति धूमिल और राजेश जोशी की काव्य-परंपरा की याद दिलाती है, पर डॉ. असीमित अपनी वैचारिक स्वतंत्रता और समकालीन संदर्भों के कारण अलग पहचान बनाते हैं।
इस संग्रह में बाज़ार और उपभोक्तावाद की आलोचना भी अत्यंत स्पष्ट और तीखी है। ‘अधूरी माप-तौल’ और ‘आंकड़े बोलते हैं जी’ जैसी कविताएँ यह दिखाती हैं कि किस प्रकार मनुष्य की पहचान अब संख्या, आँकड़े और मापदंडों में सिमटती जा रही है। कवि इस प्रवृत्ति को केवल आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि मानवीय संकट के रूप में देखता है। जब भावनाएँ, श्रम, रिश्ते और जीवन तक आँकड़ों में बदल दिए जाएँ, तब कविता का दायित्व केवल सौंदर्य रचना नहीं, बल्कि चेतावनी देना भी हो जाता है — और डॉ. असीमित यह दायित्व पूरी गंभीरता से निभाते हैं।
यदि समग्र मूल्यांकन किया जाए, तो ‘समय के साए’ को केवल एक कविता-संग्रह कहना अपर्याप्त होगा। यह संग्रह अपने समय का दस्तावेज़, संवेदनशील नागरिक का वक्तव्य और विचारशील कवि का नैतिक हस्तक्षेप — तीनों एक साथ है। इसकी कविताएँ मनोरंजन नहीं करतीं, वे असहज करती हैं; वे राहत नहीं देतीं, वे प्रश्न देती हैं; वे पलायन नहीं सिखातीं, वे सामना करना सिखाती हैं। अकादमिक दृष्टि से यह संग्रह शोध, आलोचना और पाठ्यक्रमीय अध्ययन के योग्य है, और आम पाठक के लिए यह आत्ममंथन का अवसर प्रदान करता है।
निष्कर्षतः, ‘समय के साए’ हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक गंभीर, विचारप्रधान और साहसी हस्तक्षेप है। डॉ. मुकेश ‘असीमित’ ने इस संग्रह के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि कविता आज भी समाज से सवाल पूछ सकती है, सत्ता को असहज कर सकती है और मनुष्य को उसके ही आईने में खड़ा कर सकती है। यह संग्रह न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि उस पर ठहरकर सोचा भी जाना चाहिए।
और अंत में एक खास बात :- लेखक की बेहतरीन कविताओं को कमजोर प्रोडक्शन क्वालिटी और जरूरत से भी ज्यादा मूल्य ने क़िताब से आम पाठक तो दूरी ही बनाने की कोशिश करेगा।
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समीक्षक -डॉ प्रमोद सागर
निदेशक -किताब गंज प्रकशन
पुस्तक : समय के साये
लेखक : डॉ. मुकेश असीमित
विधा : काव्य
भाषा: हिंदी
प्रकाशक: नीलम पब्लिकेशन, मुंबई
पृष्ठ संख्या : 124 पृष्ठ
संस्करण : प्रथम (2025) पेपरबैक
कीमत : 300/- (तीन सौ रूपये)
ISBN: 978-93-47017-12-4
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