संस्था का स्वयंवर: ‘योग्यता’ नहीं, ‘जुगाड़’ की वरमाला!
शहर में चर्चा गरम है, हर गली, हर नुक्कड़ पर एक ही बात… अपनी ‘संस्था’ बिटिया का स्वयंवर रचा जा रहा है! जी हाँ, वही हमारी पूजनीय संस्था, जो ज्ञान की गंगा बहाती है, एक शर्मीली दुल्हन की तरह मंडप में खड़ी है। हर दो साल में यह अनूठा ‘पाणिग्रहण संस्कार’ होता है, जहाँ कुछ नए ‘दूल्हे’ इस संस्था-रूपी दुल्हन का हाथ थामने को बेचैन रहते हैं। हर दो साल में बालिग़ सी हो जाती है हमारी यह संस्था… इसके पालनहार इसकी शादी की चिंता में चिंताग्रस्त गली-गली भटकते नज़र आते हैं… योग्य वरों की तलाश में… गली-गली धूम धडाका सा मच जाता हैं। कुछ पुराने दूल्हों का तलाक हो गया तो नए दूल्हों के चयन में स्वयंवर रचाया जा रहा है… बहुतपति प्रथा है संस्था में… एक ‘हेडपति’ भी इन्हीं पतियों में से चुना जाएगा , जो ‘पतित ‘ की हद पार कर चुका है, उसे ‘हेडपति’ बना दिया जाएगा …l माहौल में इतनी उत्तेजना है कि पूछिए मत!
हमारी संस्था-रूपी दुल्हन! बड़ी पढ़ी-लिखी है जी, पोस्ट-ग्रेजुएट तक की डिग्रियाँ लिए, ज्ञान की किताबों में पली-बढ़ी, ज्ञान की गंगा में गोते लगाकर निखरी हुई, पर आज लजाई-सहमी खड़ी है। पालनहारों की आज्ञा के विरुद्ध मजाल है कुछ कह सके… वर जो भाग्य में आए, वही भीरु जी…l हाथ में वरमाला लिए, नज़रें झुकाए, जैसे कह रही हो — “हे ईश्वर! दया करना… इस बार थोड़े ढंग के वर मिल जाएं तो मेरा कुछ कल्याण हो।” वर भी देखो कैसे-कैसे आ पहुँचे हैं, हाथ में माला, चेहरे पर कुटिल मुस्कान और हें,हें.. की सिफ़ारिशी तिकड़मबाज़ी लिए… l बेचारी क्या जाने, ये कोई आम स्वयंवर नहीं, ये तो ‘आधुनिक स्वयंवर’ है, जहाँ सुंदरता, योग्यता और ज्ञान से ज़्यादा ‘पहुँच’ और ‘दाँव-पेंच’ देखे जाते हैं।
सजे हैं मंच पर दूल्हे! एक अदनी सी कली अनार की और 14 दूल्हे बीमार की दरकार …l लेकिन दूल्हे पहुँच गए दोगुने…l सज गया दरबार…l लपका जैसे लग रहे हैं दूल्हे और उनके साथ वाले…माहौल ऐसा ही जैसे आप संस्था के द्वार पर नहीं कसी बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर अभी अभी उतरे हो…ये सभी लपका लोग ( दुल्हे और उनके बाराती) खींच रहे हैं इन यात्रियों को..बिठाने अपने अपने खेमे की टैक्सीयों में ! जैसे ही गेट में घुस रहे हैं सब दूल्हे अपना-अपना ID कार्ड लिए अगुआई में l शान से लिखवा दिया गया है “समाजसेवी, अनुभवी, योग्य उम्मीदवार को वोट देकर संस्था के कल्याण में भागीदार बनें…” l दिखा रहे हैं अपना-अपना ID… खींचकर ले जा रहे हैं वोटर को… किसी ने पैंट पकड़ा, किसी ने शर्ट, किसी ने जेब ,कोई लंगोट तक पहुँचने की कोशिश में…. हैं -हें… “पहचना आपने … आपके पापा अच्छे से जानते हैं, वो ध्यान रखना… l मैं जैसे-तैसे छूटकर आगे बढ़ता हूँ… l खुद का ध्यान रखते हुए कि इस लूट खंसोट में कही अपनी लंगोट न खुलवा बैठूं l … जाने वाले तेरा ध्यान किधर र है, योग्य दूल्हा इधर है…” एक नज़र हम पर भी मारो साहब… ऐसे कैसे चले जा रहे हो?फब्तियाँ, सीटी, ग़लत-सलत इशारों से बुलाया जा रहा है मुझे…मैं जैसे अर्ध-आमंत्रित घुस आया हूँ…किसी रेड लाइट एरिया में !
एक से बढ़कर एक सूरमा! रंग-बिरंगे, अजब-गजब आकार-प्रकार के। धोती-कुर्ता में, पहने अचकन, उगे हुए नेता… तो कोई सूट-बूट में। किसी का पेट उसकी योग्यता से कहीं ज़्यादा बाहर निकला हुआ, तो कोई इतना दुबला-पतला कि हवा का झोंका आए तो स्वयंवर के मंडप से ही उड़ जाए! दुल्हा मंडी सजी है जी l कुछ दुल्हे ऐसे भी , दुल्हे जैसे लग ही नहीं रहे ,इसी कॉलेज के डिग्री धारी ,चश्मिश से ,इस संस्था के मंच माला और माइक के खेल से अनभिग्य , उन्हें नहीं आता कुछ भी, वो सहमे से खड़े हैं…लपका की ट्रेनिंग नहीं ली इन्होने किसी,टैक्सी वालों से कि कैसे यात्रियों को हथियाया जाता है !
हा हा हा! ऐसे भी दूल्हे हैं जिन्होंने दुल्हन के घर (संस्था) का मुँह तक कभी देखा नहीं। इनकी जवानी तो दुल्हन के घर के सामने सीटी बजाने और फब्तियाँ कसने में बीती है, और आज ये भी दूल्हे बनकर खड़े हैं! जैसे इन्हें ही इस संस्था-रूपी दुल्हन के लिए सबसे ज़्यादा ‘फ़िक्र’ है। कुछ ऐसे हैं जो पहले भी चुने गए भूतपूर्व दूल्हे… अब दोबारा घोड़ी चढ़ने का मन है… l एक बार दूल्हा बन जाएँ तो ये शौक चढ़ ही जाता है, क्या करें…l
‘साम, दाम, दंड, भेद’ — इन चारों वेदों का पाठ पूरी निष्ठा से हो रहा है।
हर कोई अपने बायोडाटा को नहीं, अपनी पहुँच को चमका रहा है। एक दूल्हा तो अपने मोबाइल में ‘ऊपर वाले’ से बात करते हुए ही घूम रहा है, जैसे कह रहा हो — “सब सेट है जी! अपना काम पक्का!”
एक दूल्हा तो माइक पर चढ़कर दहाड़ रहा था — “अरे जनाब! ये पढ़े-लिखे कागज़ी शेर क्या जानें संस्था चलाना? संस्था किताबों से नहीं, तिकड़मबाज़ी से चलती है! जब नौंवी फेल शिक्षा मंत्री बन सकता है, तो हम एक छोटी-सी संस्था के कार्यकारी क्यों नहीं?”
बात तो सही है, गुरू! देश की शिक्षा का ठेका जिनके हाथ में है, अगर उनकी मार्कशीट देख ली जाए, तो शायद शिक्षा को ही शर्म आ जाए।
दूसरे ने अपनी छाती पीट-पीट कर कहा — “अरे! कोमल कलि थी ये संस्था,नाजुक सी ,इसे हमने इन मास्टरों के खून पसीने से सींचकर फूल बनाया है ! जब ये धूल-मिट्टी में सनी रहती थी, तब हमने ही इसे झाड़ा-पोंछा। अब जब ये सयानी हो गई है, तो ये डिग्रीधारी बाबू आकर वरमाला डालने चले हैं? पहले अपनी शक्ल देखो, फिर बात करो! हमारी संस्था है! हमने इसे पाला-पोसा है, हमने ही इसे बालिग किया, अब हम ही वरन करेंगे!”
वो अपने हाथ में डोनेशन की लाइफ टाइम रसीद लेकर खड़ा है — संस्था उसकी पैतृक संपत्ति है, इसका प्रमाण!
यह सुनकर दुल्हन की आँखें शर्म से ज़्यादा आश्चर्य से फैल गईं। उसका भ्रम टूट गया। उसे लग रहा था कि उसे पालने-पोसने वाले तो बेचारे मास्टर जी थे, जिन्होंने दिन-रात मेहनत की।
“सुनो, क्या कह रहा है एक दूल्हा…” — “संस्था ज्ञान से नहीं, अनुदान से चलती है। और अनुदान कौन लाएगा? जिसकी ऊपर तक पहुँच हो! हमारी पहुँच सीधे मंत्रालय तक है! हम शिक्षा का ऐसा ढोल पीटेंगे कि सरकार के कान बहरे हो जाएँगे! बच्चे किताबों से नहीं, हमारी जय-जयकार से पास होंगे!”
एक तो यहाँ तक कह गया — “जब हम इस कॉलेज में पढ़ते थे ,मास्टरों ने बहुत हमारे कान खींचे हैं, अब हमें मौका दो, हम उनके कान खींचेंगे… और ऐसा खींचेंगे कि उन्हें अपनी नानी याद आ जाएगी!”
तो लीजिए, स्वयंवर की धूम मची है! ढोल-नगाड़े बज रहे हैं! लॉबिंग की गलियों में सन्नाटा नहीं, बल्कि ज़ोरदार चहलकदमी है। वोट देने वाले सदस्य को कोई असमंजस नहीं… बस आँख मूँदकर टिक लगाना है — किसे चुने, किसे न चुने… सभी एक ही बेल के तो तूमडे हैं… संस्था का बंटाधार करने में सभी की योग्यता एक-सी।
अब देखना यह है कि इस स्वयंवर के बाद संस्था-रूपी दुल्हन का भविष्य कैसा होगा?
क्या वह ज्ञान के पथ पर चलेगी या फिर जुगाड़ की बैसाखी पर लंगड़ाती रहेगी?
ईश्वर ही मालिक है!
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
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