विरासत बनाम विपणन — परिमाण में वृद्धि, गुणवत्ता में गिरावट
साहित्य के बाजार में आज सबसे सस्ता माल है “महानता” — बस उसे प्रचार की चमक में पैक कर दीजिए, और लोग उसे खरीद लेंगे। पहले किसी लेखक की पहचान उसके विचार, दृष्टि और संवेदना से होती थी; अब पहचान फॉलोअर्स, व्यूज़ और बुक-लॉन्च की सजावट से होती है।
हर शहर में एक “कला-उत्सव” जैसा नजारा मिल ही जाएगा, जहाँ असली लेखक हॉल के कोने में खड़ा हुआ मिलेगा , और नकली लेखक मंच के बीच में बैठा हुआ है। आज के समय में व्यंग्य की सबसे बड़ी त्रासदी यही है — कि उसका विषय बचा है, पर मंशा खो गई है।
जहाँ देखो वहां परसाई जी का सोटा घुमाया जा रहा है l यह बिना जाने की परसाई जी के समय में व्यंग्य एक साधना थी , अब वह रणनीति बन चुकी है।
व्यंग्यकारों से आशा की जाती थी कि वो समाज की नब्ज़ पकड़ेंगे , लेकिन आजकल वो ट्रेंडिंग टोपिक पकड़ते हैं ।
पहले व्यंग्य व्यवस्था की आलोचना करता था, अब वह वहीँ गिरवी रखा जाने लगा है ,रखैल सी बन गया है व्यबस्था की ,उसकी पीआर टीम का हिस्सा बन गया है।
आप किसी साहित्यिक आयोजन में जाइए — हर तीसरे मंच पर “परसाई की विरासत” पर संगोष्ठी चल रही होगी, और हर वक्ता अपने भाषण में परसाई को “महान” कहने से पहले दस बार “मैं” का इस्तेमाल करेगा।परसाई लेखन पर उसके स्वामित्व की प्रमाणित प्रतियां बांटी जाती है l
ऐसा लगता है जैसे हम परसाई को पढ़ने से ज़्यादा उन्हें उद्धृत करने में व्यस्त हैं।
आज हर अख़बार, हर पोर्टल, हर ब्लॉग पर व्यंग्य की बाढ़ है — पर विडंबना यह कि व्यंग्य की गहराई घट गई है।यह ठीक वैसा ही है जैसे बारिश खूब हो, पर जमीन की सतह पर ही रहा गया ,गहराई में जाए तो सिंचित करे साहित्य के पेड़ को ।सतह पर बहेगा तो बाढ़ बनकर उखाड़ ही देगा साहित्य के पेड़ को l
लेखक धड़ल्ले से लिख रहा है, पाठक पढ़ हीं रहा है, संवाद को तो जैसे शून्यता की काली चादर ओढा दी हो ।
हम व्यंग्य को “जागरूकता का औजार” नहीं, “मनोरंजन का टूल” बना बैठे हैं।
साहित्य के इस विपणन-युग में “व्यंग्य” का भी अपना मूल्य तय हो रहा है — शब्दों की जगह ब्रांडिंग, करुणा की जगह कवर डिज़ाइन, और विवेक की जगह विमोचन समारोह व्यग्य के नए मार्केटिंग टूल ।
पहले व्यंग्य समाज से सवाल करता था, अब समाज से कुछ मोटे स्पॉन्सर खोजता है।
जो लेखक सवाल पूछता है, उसे “नकारात्मक” कह दिया जाता है; जो बस हैं हैं की समुधर राग दरबारी गता है , वह “पॉपुलर” की जमात में है।
कभी व्यंग्य व्यवस्था से टकराता था; अब वह व्यवस्था की प्रेस वार्ता में शामिल होता है।
पर यह स्थिति सिर्फ लेखकों की गलती कहें ऐसा नहीं है — पाठक भी दोषमुक्त नहीं हैं।
अब पाठक गहराई से पढ़ना नहीं चाहता; उसे बस “एक लाइन का निचोड़” चाहिए।रील ने उसके अटेंशन को सीमित कर दिया l पाठक अटेन्सन डेफिसिट डिसऑर्डर से पीड़ित हुआ लगता है l
वह उस ठहाके को शेयर करता है जो उसे सोचने से बचा लेता है।
ऐसे में व्यंग्य का काम और कठिन हो गया है — उसे ऐसी हँसी रचनी है जो चुभे भी और जगाए भी।
यह वही परीक्षा है जिससे हर सच्चा लेखक गुज़रता है — क्योंकि व्यंग्य का असली पाठक वही होता है जो पहले हँसे और फिर असहज हो जाए।
साहित्यिक जगत में आज “विरासत” का भी व्यापार शुरू हो गया है।
परसाई की विरासत का अब शाल, स्मृति-चिन्ह और फेसबुक पोस्ट के जरिये बन्दरबाँट सी चल रही है ।
जो लोग कभी उनके लेखों के विरोध में खड़े थे, वे आज उनकी स्मृति पर भाषण दे रहे हैं।
व्यंग्य की आत्मा वहाँ मर जाती है जहाँ स्मरण सिर्फ औपचारिकता बन जाए।
विरासत का अर्थ यह नहीं कि हम किसी लेखक की तस्वीर फूलों से सजाएँ —विरासत का अर्थ यह है कि हम उनके प्रश्नों को ज़िंदा रखें।
व्यंग्य की असली परंपरा वही है जो विरोध में जन्म लेती है, पर करुणा में जीती है।
परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल — इन सबने सिर्फ दूसरों पर नहीं, अपने समय पर भी हँसी की तलवार चलाई।वे अपने समाज से प्यार करते थे, इसलिए उस पर हँस सकते थे।
आज जो लेखक समाज से डरता है, वह व्यंग्य नहीं लिख सकता — वह सिर्फ “कंटेंट” बना सकता है।
कला तब तक जिंदा रहती है जब तक वह असहज करती है।
हमारे समय का संकट यह नहीं कि व्यंग्य खत्म हो गया है,संकट यह है कि व्यंग्य को सुनने की आदत खत्म हो गई है।हर किसी को बस अपने पक्ष का मज़ाक चाहिए।ऐसे में परसाई की विरासत को बचाना सिर्फ श्रद्धांजलि से नहीं,हिम्मत से होगा —सच लिखने की, सच बोलने की,और सबसे बढ़कर — सच पर हँसने की हिम्मत से।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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