राजभाषा, ज्ञान-व्यवस्था और डिजिटल युग में हिंदी की आगे की राह
हिंदी का भविष्य एक पंक्ति में नहीं समेटा जा सकता; इसे छह खानों में पढ़िए—1) बोलचाल/संस्कृति, 2) संपर्क/व्यापार, 3) राजकाज/न्याय, 4) शिक्षा/विज्ञान, 5) मनोरंजन/मीडिया, 6) अंतरभाषिक सद्भाव। पहले खाने पर तो हिंदी मज़बूत है—बाज़ार, शहर, ऑटो-टैक्सी, सोशल मेलजोल, धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन—हर जगह कामचलाऊ नहीं, स्वाभाविक हिंदी चलती है। संपर्क की भाषा के रूप में भी हिंदी का दायरा देश के पूर्वोत्तर और अंडमान-निकोबार तक दिखाई देता है; पश्चिम/मध्य भारत में तो यह स्वाभाविक पुल है, क्योंकि मूल-संरचना (संस्कृत-रूट) साझा है।
चुनौती का असली मैदान शेष चार खाने हैं। न्याय-प्रणाली में जनता की भाषा का स्थान सीमित है; सुप्रीम कोर्ट और अधिकांश उच्च न्यायालयों में अंग्रेज़ी-प्रभुत्व लोकतांत्रिक भागीदारी के विरुद्ध बाधा की तरह खड़ा है। लोकतंत्र का अर्थ है—जनता अपनी भाषा में न्याय समझे, न कि “फ़ाइल की भाषा” जनता पर थोप दी जाए। आदर्श व्यवस्था यह हो: पीठ गठन में उस क्षेत्र-भाषा के जानकार न्यायाधीश हों; बहुभाषिक अनुवाद-इंफ़्रास्ट्रक्चर मज़बूत हो; और आदेश/आरोप-पत्र की नागरिक प्रति अनिवार्यतः स्थानीय भाषा में उपलब्ध हो।
शिक्षा में दिशा साफ़ है—बचपन (प्राथमिक) मातृभाषा में; माध्यमिक/उच्च में द्विभाषिक पुल। यह “या तो हिंदी, या अंग्रेज़ी” वाला द्वंद्व छोड़िए। विचार अपनी भाषा में, संदर्भ और शोध का वैश्विक द्वार अंग्रेज़ी/अन्य में। मेडिकल/इंजीनियरिंग/मैनेजमेंट की हिंदी-पाठ्यपुस्तकों का आरंभ साहसिक और सही कदम है; तकनीकी पद—Insulin, Bypass, Algorithm—जैसे हैं वैसे रखें, मगर अवधारणाएँ हिंदी-वाक्य-विन्यास में पढ़ाएँ। शिक्षक-प्रशिक्षण, शब्द-कोश/शैली-पुस्तक, मानकीकृत टर्म-बैंक और मुक्त-लाइसेंस (ओपन) ग्लॉसरी—ये चार स्तंभ बिना रुके बनाने होंगे। “अंतर्जाल/संगणक” बनाम “Internet/Computer” की बहस में फँसने से बेहतर है एकरूपता: जो शब्द जन-प्रयोग में जम गए, उन्हें ही मानक दीजिए; ऊर्जा वहाँ लगाइए जहाँ सचमुच शून्य है—अनुवाद-मानक, उदाहरण-समुच्चय, चित्रित-पाठ, और टूलकिट।
व्यापार/विज्ञापन की दुनिया ने पहले ही संदेश दे दिया है: ग्राहक की भाषा वही है जिसमें वह हँसता, रोता, खरीदता है। डिजिटल-इकोनॉमी—UPI ऐप से लेकर कस्टमर-सपोर्ट चैटबॉट तक—बहुभाषिक हो चुकी है; हिंदी का शेयर विशाल है। सोशल मीडिया/OTT/YouTube पर हिंदी की दर्शक-भागीदारी 50% के आसपास बनी रहती है—यही बताती है कि मनोरंजन-उद्योग में हिंदी कोई “विकल्प” नहीं, मुख्यधारा है। स्क्रिप्टिंग में देवनागरी का आग्रह महज़ भावुकता नहीं—उच्चारण-सूक्ष्मताओं (ड़/ढ़/ण/ऋ/ल़) की शुद्धता अभिनेता, वॉइसओवर, डबिंग और ASR (speech-to-text) की गुणवत्ता तय करती है; रोमन-हिंदी वहाँ जल्द ही दीवार बन जाती है। इसलिए कंटेंट-इंडस्ट्री का “देवनागरी-प्रथम, बहुलिपि-सहायक” मानक व्यावहारिक भी है और व्यवसायिक भी।
अंतरभाषिक सद्भाव हिंदी की दीर्घ-राजनीति है। “हिंदी बनाम उर्दू” जैसी नक़ली लड़ाइयाँ भाषा-विज्ञान के आधार पर टिकती ही नहीं: दोनों का व्याकरण साझा, बोली-स्रोत साझा; भिन्नता लिपि/शब्द-स्रोत के अनुपात की है। उर्दू को “इम्पोर्टेड” कहकर बहिष्कृत करना या तमिल/तेलुगु के प्रति अपमानजनक तेवर रखना—यह सब हिंदी के हित में भी नहीं, भारत की आत्मा के भी विरुद्ध है। जो सचमुच राष्ट्रभाषा जैसा नैतिक स्थान पाना चाहती है, उसे पहले “राष्ट्र” का मन जीतना होगा—सम्मान, सीखने की इच्छा और पुल बनाकर। व्यवहार में फ़ॉर्मूला सरल है: (1) अपने स्कूल/कॉलेज में एक भारतीय “दूसरी” भाषा सिखाइए/सीखिए, (2) स्थानीय प्रशासन/अदालत/अस्पताल में नागरिक-पत्र हिंदी + क्षेत्रीय भाषा में दीजिए, (3) टेक उत्पाद/ऐप/UI को हिंदी सहित बहुभाषी बनाइए, (4) देवनागरी-आधारित तकनीकी फ़ॉन्ट/इनपुट/ASR/TTS में निवेश बढ़ाइए।
और सबसे महत्वपूर्ण—हिंदी समाज की पढ़ने की आदत। अफ़वाह से नहीं, अध्ययन से विचार बनाइए; डेटा देखिए, बहस पढ़िए, आर्काइव/डिबेट/रिपोर्ट्स से सीखिए। “मिरांडा-सिंड्रोम” तभी टूटेगा जब आत्मविश्वास अध्ययन-आधारित होगा—भावनात्मक नारा नहीं, संस्थागत निर्माण। हिंदी-दिवस की सार्थकता भी यही है: (i) बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा अपनी भाषा में, (ii) उच्च शिक्षा में द्विभाषिक-सेतु, (iii) न्याय/प्रशासन में नागरिक-भाषा का अधिकार, (iv) कंटेंट-इकोनॉमी में देवनागरी-प्रथम मानक, (v) त्रिभाषा-सद्भाव को वास्तविक अभ्यास।
हिंदी किसी की दुश्मन नहीं—यह अपनी रिश्तेदारी का वृक्ष है, जिसकी जड़ें संस्कृत में, शाखाएँ बोलियों/उर्दू/फ़ारसी-तत्वों में, और पत्ते आधुनिक विज्ञान/तकनीक की शब्दावली में हरे-भरे हैं। इस वृक्ष को पानी “आत्म-सम्मान + समावेशन” देता है। इसलिए निष्कर्ष एक ही—हिंदी से प्रेम कीजिए, पर उतना ही आदर तमिल/तेलुगु/बांग्ला/कन्नड़/उर्दू को भी दीजिए; अंग्रेज़ी से सीखिए, पर अपनी सोच अपनी भाषा में रखिए। जिस दिन हमने यह संतुलन साध लिया, हिंदी सिर्फ “दिवस” नहीं—दैनिक जीवन की लोकतांत्रिक धड़कन बनकर देश के हर कोने में सबसे सुरीली लगेगी।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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