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रेवड़ी की सिसकियां-व्यंग्य रचना

एक करेक्चर चित्र जिसमें एक वृद्धा जैसी "रेवड़ी देवी" घूंघट में लिपटी हैं, आंखों में आंसू, हाथ में घोषणाओं के पोस्टर — "फ्री बिजली", "फ्री पानी", "फ्री वाई-फाई" — चारों ओर नेता उन्हें मंचों से उछालते दिख रहे हैं, भीड़ ताली बजा रही है, और एक कोना अंधकारमय है जहां मेहनतकश किसान और मजदूर थके हुए बैठे हैं।

रेवड़ी की सिसकियां
(डॉ. मुकेश असीमित)

रेवड़ी सिसकती हुई रास्ते में मिली।
चेहरे पर शिकन, माथे पर चिंता की रेखाएं।
यह वही रेवड़ी देवी हैं, जिनका नाम आजकल हर चौक-चौराहे पर गूंज रहा है।
जहां देखो, रेवड़ी की ही चर्चा—
किसने कितनी बांटी,
किसने और बांटने का वादा किया।
रेवड़ी, जो आज की स्टार प्रचारक बन गई हैं।
अलग-अलग रंग, रूप, और लुभावने नारों में,
उनका नंगा प्रदर्शन हर ओर छाया हुआ है।

मैंने पूछा, “रेवड़ी जी, क्या हुआ? इतनी परेशान क्यों दिख रही हैं?”
वह मुस्कराई नहीं,
बस थकी-हारी सी बोली,
“क्या बताऊं, बेटा!
अब तो मेरी आत्मा भी इन नारों में खो गई है।
मेरे नाम पर जो खेल हो रहा है,
वह न मेरी समझ में आ रहा है, न तुम्हारी समझ में आएगा।”

वह आगे बोलीं,
“देखो, इन कर्ज से दबी सरकारों को।
हर तरफ रेवड़ी का शोर है—
फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री राशन।
कोई फ्री गैस दे रहा है,
तो कोई फ्री इंटरनेट।
अरे भाई, मेहनत का मूल्य अब कौन समझेगा?”

मैंने कहा, “लेकिन, रेवड़ी जी,
आप तो जनकल्याण का प्रतीक रही हैं।
गरीबों की सहारा, जनता की मसीहा।
अब यह नाराज़गी क्यों?”

रेवड़ी तिलमिला उठीं।
“मुझे गलत मत समझो।
मैं जरूरतमंदों की सेवा के लिए थी,
लेकिन अब तो मुझे हर किसी को,
हर जगह बांटा जा रहा है।
जो पात्र हैं, वे भी लेते हैं,
जो अपात्र हैं, वे भी।
और यह सब,
कर्ज की जंजीरों से बंधा हुआ है।
कौन सा राज्य बचा है,
जो इन कर्जों के नीचे दबा नहीं है?”

मैं चुप।
पर रेवड़ी नहीं रुकीं।

“देखो इन नेताओं को।
चुनाव जीतने के लिए,
मेरे नाम का ऐसा इस्तेमाल किया,
कि अब मैं खुद को ही पहचान नहीं पा रही।
हर योजना को रेवड़ी बना दिया।
मुफ्तखोरी का ऐसा जाल बुना,
कि मेहनत करने वालों की पीठ टूट गई।
और जो मेहनत से कमा रहे हैं,
उनसे टैक्स लेकर अपात्रों को रेवड़ी बांट रहे हैं।
यह कौन सा विकास है?”

उनकी आंखों में पानी था।
“मुझे वनवास चाहिए।
अब मैं इस माहौल में नहीं रह सकती।
जहां मुफ्तखोरी को महिमा मंडित किया जाता है,
और मेहनत को हाशिए पर।
मेरे नाम पर बांटना है,
तो रोजगार बांटिए।
मेरे नाम पर वादे करना है,
तो शिक्षा और स्वास्थ्य के वादे कीजिए।
लेकिन नहीं,
यह सब तो भाषणों तक सीमित है।
असली खेल तो मुफ्त रेवड़ियों का है।”

मैंने उन्हें जाते देखा।
धीरे-धीरे वह भीड़ में गुम हो गईं।
लेकिन उनकी बातें,
उनका दर्द,
मेरे मन में रह गया।

बाहर चुनावी रैली का शोर था।
“फ्री! फ्री! फ्री!”
भीड़ ताली बजा रही थी।
लेकिन मेरी आंखों में वह रेवड़ी सिसक रही थी।

डॉ. मुकेश असीमित—साहित्यिक अभिरुचि, हास्य-व्यंग्य लेखन, फोटोग्राफी और चिकित्सा सेवा में समर्पित एक संवेदनशील व्यक्तित्व।
डॉ. मुकेश असीमित
✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक

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