रियाज़ की निरंतरता और सृजन का आत्म-संघर्ष
बिलकुल सही कहा गया है—जब आप ‘readily available’ हो जाते हैं, तो लोगों की नजरें आपको देखने की इतनी अभ्यस्त हो जाती है की आप नजरों में नहीं बने रहते । जब आप लगातार लेखन करते हैं, तो लोग उसे अभ्यास या ‘रियाज़’ मानने से कतराने लगते हैं। उन्हें यह हज़म ही नहीं होता कि एक डॉक्टर होकर कोई इंसान सृजन को इतना समय कैसे दे सकता है!
बिलकुल… और यही तो बात है जो अक्सर अनकही रह जाती है।
ऐसा नहीं है कि मेरा उद्देश्य सिर्फ लिखना और छपना भर है। दरअसल, मैं तो छपने के बाद भी अपनी रचना को बार-बार देखता हूँ, उसे पढ़ता हूँ, और हर बार कुछ अधूरा सा महसूस करता हूँ। मुझे अपनी ही रचनाएँ हमेशा अधूरी लगती हैं — जैसे अभी उनमें कुछ शेष है, जो कहा जाना बाकी है। इसलिए मैं उन्हें बार-बार संशोधित करता हूँ। यह एक निरंतर प्रक्रिया है — एक जीवित रचना प्रक्रिया, जो तब तक चलती रहती है ।”
लेकिन एक सच यह भी है — पाठक शायद कभी नहीं बताएंगे कि आपकी रचना में क्या कमी है। और अगर आप किसी ‘खेमे’ से नहीं जुड़े हैं, किसी मंच या साहित्यिक गिरोह के संरक्षित सदस्य नहीं हैं, तो कोई आपको इतना आत्मीय नहीं मानेगा कि आपकी रचना को पढ़कर उसमें सुधार की बात भी कह सके।
आज की भागती-दौड़ती ज़िंदगी में जब हर कोई ‘संपन्नता’ के पीछे भाग रहा है, तो साहित्यिक संवाद अब सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गया है। ज़्यादातर लोग बिना पढ़े ही ‘बहुत सुंदर’, ‘लाजवाब’, ‘अद्भुत’ जैसे शब्द टाइप करके इतिश्री कर लेते हैं — और मज़ेदार बात यह कि वही लोग अपनी रचनाओं पर भी आपसे ऐसी ही त्वरित प्रतिक्रिया की अपेक्षा रखते हैं।
और यहीं से ‘खेमेबाज़ी’ शुरू होती है।
जिसने रचना कभी पढ़ी ही नहीं, वह भी अपने ‘गुट’ के लेखक की औसत रचना पर तालियाँ पीटता है — और बदले में उसी से अपनी रचना के लिए तालियाँ चाहता है। यह तालियाँ एक-दूसरे के कंधे थपथपाने की एक लंबी श्रंखला बन जाती हैं, जिसमें सृजन तो कहीं कोने में सहमा बैठा रह जाता है।
यह सच है कि ‘खेमेबाज़ी’ आपके सृजनात्मक उत्कर्ष को कुंद कर देती है। यह अलग बात है कि उसी खेमेबाज़ी के ज़रिए पुरस्कार, सम्मान, मंच और प्रचार-प्रसार की राहें खुलती हैं — लेकिन वह रचनात्मक आत्मा कहाँ जीवित रहती है, जिसे किसी पाठक की ईमानदार चुप्पी भी बहुत कुछ कह जाती है?
मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि मेरी रचना मेरी संतुष्टि का माध्यम बने — पाठकों से संवाद बने — और अगर कोई आलोचना भी मिले, तो वह रचना के प्रति ईमानदारी से मिले, न कि गुटबाज़ी की तोल-मोल पर। यही सोचकर आगे बढ़ता हूँ… अपनी गति, अपने रियाज़ और अपने विवेक के साथ।
मुझे आज भी याद है, जब लेख भेजने की शुरुआत की थी तो लगभग हर पत्र और पत्रिका ने उन्हें खुले दिल से अपनाया। कई प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादकों ने तो बाकायदा फ़ोन पर सराहना की और नियमित लेखन के लिए आमंत्रित भी किया। लेकिन अब… अब अधिकतर पत्रिकाएँ लेख भेजते ही सबसे पहले सब्सक्रिप्शन की माँग करने लगी हैं।
एक प्रमुख समाचार पत्र ने एक साथ मेरे तीन लेखों को स्वीकृत कर छापा था — वो दिन अब बीते ज़माने की बात हो गई। आज वही संपादक, वही प्रकाशन कन्नी काटने लगे हैं। अब हर जगह एक रोबोटिक-सी प्रणाली चल पड़ी है — सब कुछ ‘क्यू’ में है, ‘बैकलॉग’ है, हर लेखक की बारी आएगी, इंतज़ार करो। रोस्टर प्रणाली से चल पडी है l अखवारों में यह लोकतांत्रिक प्रणाली और साम्यवाद ही है जो लेखक की गुणवत्ता को गिरा रहा है l
कभी-कभी जब तथाकथित बड़े लेखकों के लेख पढ़ता हूँ, तो हैरानी होती है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के नाम पर संपादकीय दृष्टि की कुर्बानी दी जा रही है। गुणवत्ता के साथ समझौता इस अजीब प्रणाली को आत्मसात कर पाने में मुझे मुश्किल होती है।
किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपना एक ‘छप्पन भोग’ वाली थाली जैसा हो गया है — एक बार स्वाद चख लिया तो फिर उसकी चाह सताने लगती है। लेकिन फर्क इस बात का नहीं कि आपने अच्छा लेखन किया या नहीं, फर्क इस बात का है कि अच्छा लेखन होते हुए भी क्या आप संपादकीय गुणवत्ता की कसौटी पर टिके हैं? या फिर भीड़ के हिस्से बन गए हैं?
मैं पहले भी ये अनुभव कर चुका हूँ — जो लोग नियमित लिखते हैं, उन्हें धीरे-धीरे हतोत्साहित किया जाने लगता है। शायद इसलिए अब मेरा रुझान उपन्यास लेखन की ओर बढ़ा है — ताकि लेखन का रियाज़ भी बना रहे और एक समग्र रचना की दिशा में ऊर्जा भी लगे।
फिर भी, जब तक एक भी पाठक मुझे पढ़ता रहेगा, मैं उसे साझा करता रहूँगा। चाहे वो फेसबुक की दीवार हो या ‘बात अपने देश की’ जैसा मंच। लिखना मेरे लिए स्वान्तः सुखाय है — बस इसी आत्मसुख के सिंचन में लगा हूँ… और लगा रहूँगा।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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